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________________ भ० अजितनाथजी - मांगलिक अग्नि कहां है ? आदि नरेन्द्र हुए। ये सभी आयु पूर्ण होने पर देह का त्याग कर गये । हमारे वंश में असंख्य नरेन्द्र और उनके आत्मीयजन मर चुके, तब तुम्हारे लिए माँगलिक अग्नि कहाँ से लाई जाय ? काल तो दुरतिक्रम है भाई ! यह सर्वभक्षी और सर्वभेदी है। इसकी पहुँच से न कोई घर अछूता रहा और न कोई प्राणी बचा । इसलिए तू चाहता है वैसा मंगल गृह तो कहीं नहीं मिल सकता । अब तू शोक करना छोड़ दे । मृत्यु आने पर सभी मरते हैं, चाहे वृद्ध हो या युवा अथवा बालक ही हो । जब एक बार सभी को मरना है, तो फिर शोक और रुदन क्यों करना चाहिए ? संसार में जो माता, पिता, पुत्र, भाई, बहन और पत्नी आदि का सम्बन्ध है, वह पारमार्थिक नहीं है । जिस प्रकार नगर की धर्मशाला में विविध स्थानों और विभिन्न दिशाओं से आने वाले बहुत से व्यक्ति ठहरते हैं और साथ रह कर रात्रि व्यतीत करते हैं, किन्तु प्रातःकाल होते ही सभी अपने-अपने गन्तव्य की ओर चले जाते हैं, उसी प्रकार इस संसार में भी विभिन्न गतियों से आ कर जीव, एक घर में एकत्रित होते हैं और समय पूर्ण होने पर अपने-अपने कर्म के अनुसार भिन्न-भिन्न गतियों में चले जाते हैं । ऐसे अनादि सिद्ध एवं अवश्यंभावी तथा अनिवार्य विषय में कौन बुद्धिमान शोक करता है । नहीं, नहीं, यह शोक करने का विषय नहीं है । इसलिए हे द्विजोत्तम ! तुम मोह का त्याग कर के स्वस्थ बनो और विवेक धारण करो ।" --" महाराज ! आपका उपदेश सत्य है -- यथार्थ है । मैं भी यह जानता हूँ, किन्तु करूँ क्या ? मुझ से पुत्र मोह नहीं छूटता । पुत्र-वियोग ने मेरा सारा विवेक हर लिया है । यह दुःख वही जानता है, जो भुगत चुका है । जब तक पुत्र-विरह की वेदना भुगती नहीं, तब तक सभी लोग ऐसी बातें करते हैं और धीरज रखने और विवेकी बनने का उपदेश देते हैं । फिर आप तो अरिहंत भगवान् के वंशज हैं। निर्ग्रथ प्रवचन से आप का हृदय निर्मल हो चुका है । आप जैसे शक्तिशाली धैर्यवान् पुरुष विरल ही होते हैं । हे स्वामिन् ! आपने जो उपदेश मुझे दिया और मेरा मोह दूर किया, यह बहुत ही अच्छा किया । किन्तु यदि कभी आप पर भी ऐसी बीते, तो आप भी धीरज रख सकेंगे क्या ? " " 'महाराज ! जिसके थोड़े पुत्र होते हैं, उसके थोड़े मरते हैं और अधिक पुत्र हैं, उसके अधिक मरते हैं । थोड़े मरते हैं, तो उनके पितादि को भी दुःख होता है और बहुत पुत्रों के मरने पर उनके माता-पितादि को भी दुःख होता है । जिस प्रकार थोड़े प्रहार से कीड़ी - कुंथू को और अधिक प्रहार से हाथी को समान पीड़ा होती है, उसी प्रकार पुत्रों के थोड़े बहुत मरने पर माता-पितादि को भी समान दुःख होता है । दुःख में न्यूनाधिकता नहीं होती । आपके उपदेश से में अपना मोह दूर करता हूँ । किन्तु राजेन्द्र ! आपको भी अपने १४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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