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________________ तीर्थंकर चरित्र सुखपूर्वक चल रहा था कि एक दिन मुझे अपने आप ही उदासी आ गई और मन चिन्ता - मग्न हो गया । अनिष्ट की आशंका से में उद्विग्न हो उठा। मैने सोचा -- मेरे कुटुम्ब पर अवश्य ही कोई संकट आया होगा । मैं उसी समय घर के लिए चल दिया । मेरी बायीं आँख फड़कने लगी थी । एक कौआ सूखे हुए झाड़ के ठूंठ पर बैठ कर कठोर शब्द बोल रहा था । मैं अपने घर के निकट पहुँचा, तो मेरा घर भी मुझे शोभाहीन दिखाई दिया । घर में पहुँचा, तो मेरी पत्नी रुदन कर रही थी । मेरा पुत्र मरा हुआ पड़ा था। यह देख कर मैं मूच्छित हो कर गिर पड़ा । सचेत होने पर मालूम हुआ कि मेरा पुत्र, सर्पदंश से मरा है। मेरे दुःख का पार नहीं रहा । मैं रात को भी शव के पास बैठा रोता रहा । इतने में मेरी कुलदेवी ने प्रकट हो कर कहा---" वत्स ! रुदन क्यों 11 करता है ? मैं कहूँ वैसा करेगा, तो तेरा यह मृत पुत्र जीवित हो जायगा । तू कहीं से ' माँगलिक अग्नि' ले आ । -- " माता ! कहाँ मिलेगी माँगलिक अग्नि मुझे " -- मैने आशान्वित होते हुए पूछा । -- " जिस घर में कभी कोई मरा नहीं हो, उस घर से अग्नि ले आ । वह ' मंगलअग्नि' होगी । जिस घर में सदा आनंद-मंगल रहा हो, कभी शोक-संताप और मृत्यु नहीं हुए हों, वहाँ की अग्नि मंगलमय होती है " - देवी ने कहा । १४४ " महाराज ! देवी की बात सुन कर में उत्साहित हुआ और पुत्र को जीवित करने के लिए मैं उत्साहपूर्वक घर से निकल गया । मैं प्रत्येक गाँव और गाँव के प्रत्येक घर में गया, किन्तु ऐसा एक भी घर नहीं मिला कि जहाँ कोई मरा नही हो । सभी ने कहा--" हमारे वंश में असंख्य मनुष्य मर चुके हैं ।" मैं मांगलिक अग्नि की खोज में भटकता हुआ आपकी शरण में आया हूँ । मुझे माँगलिक अग्नि दिलाइये -- " महाराज ! आप चक्रवर्ती सम्राट हैं । सम्पूर्ण छह खंड में आपका राज्य है । वैताढ्य पर्वत पर की दोनों श्रेणियों में रहे हुए विद्याधर भी आपके आज्ञाकारी हैं और देव भी आपकी सेवा करते हैं तथा नव निधान आपके सभी मनोरथ पूर्ण करते हैं । इसलिए किसी भी प्रकार से मेरा मनोरथ पूर्ण कराइये --- दयालु' - ब्राह्मण अत्यन्त दीनता पूर्वक याचना करने लगा । ब्राह्मण की याचना सुन कर नरेन्द्र विचार में पड़ गए । यह अनहोनी माँग कैसे पूरी हो । उन्होंने ब्राह्मण को समझाते हुए कहा ; "1 'हे भाई ! हमारे ही घर में तीन लोक के स्वामी अरिहंत भगवान् ऋषभदेवजी हुए । भरतेश्वर जैसे चक्रवर्ती नरेन्द्र हुए, जिनका सौधर्मेन्द्र जैसे भी आदर करते थे और अपने साथ एक आसन पर बिठाते थे । वीर शिरोमणि महाबाहु बाहुबलीजी तथा आदित्ययश Jain Education International -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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