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शोक-निवारण का उपाय
सगर-पुत्रों के मरण से शोकाकुल बने हुए सेनापति, सामन्त और मंडलेश्वरादि तथा साथ रही हुई अन्तःपुर की स्त्रियों के आक्रंद से सारा वन-प्रदेश व्याप्त हो गया। सभी ने राजधानी लौटने के बजाय मरना ही ठीक समझा। उनके करुणाजनक विलाप से सारा वातावरण ही शोकार्त हो गया । पत्थर-से हृदय को भी पिघला देने की शक्ति थीउस सामूहिक आर्तनाद में । उस समय भगवें वस्त्र वाला एक ब्राह्मण वहाँ आया और उन रुदन करते हुए मनुष्यों से कहने लगा;--
"अरे, ओ विवेक-विकल मूखौं ! तुम इतने मूढ़ क्यों हो गए ? क्या मरने वालों के साथ मर जाना भी समझदारी है ? क्या कोई अमर हो कर आया है--संसार में ? मरना तो सभी को है । कोई पहले मरता है और कोई पीछे । कई एक साथ जन्मते हैं और आगेपीछे मरते हैं, कई आगे-पीछे जन्मते हैं, पर एक साथ मर जाते हैं । विभिन्न काल में और विभिन्न स्थानों पर जन्मे हुए बहुत-से मनुष्य एक काल में एक स्थान पर भी मरते हैं । यह
(२) कहा जाता है कि यह पर्वत शाश्वत है और उस पर्वत पर के चैत्य भी देव-सहाय्य से अब तक (कछ कम एक करोड़ सागरोपम तक) सुरक्षित है, तब खाई खोदने की जरूरत ही क्यों हई ? दे देवता उस चैत्य की रक्षा करते ही थे ?
(३) खाई एक हजार शाश्वत योजन खुद कर भवनपति के भवनों का भी तोड़-फोड़ दिया, तो ऊपर के एक सौ योजन के बाद आठ सौ योजन तक के क्षेत्र में व्यन्तर जाति के देवों के नगर हैं. उन नगरों पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा ? वे अछूते ही रह गए ? यह कैसे हो सकता है ?
(४) सगरकुमारों ने खाई खोदने की भूल की और उस भूल की क्षमा भी उसे नागराज ज्वलनप्रभः से मिल गई, तो बाद में खाई में पानी तो विचार कर के ही भरना था। किसी ने यह भी नहीं सोचा कि-'जब पृथ्वी फूट ही गई है, तो पानी भरने से वह पानी पहले नागकुमार के भवनों में दी जायगा और पूनः उपद्रव भड़केगा।' सुबुद्धि आदि प्रधानों और पुरोहितादि शान्ति-प्रवत्तंक रत्नों। तेरह रत्न के अधिष्टाता देवों में से किसी के भी मन में यह बात क्यों नहीं आई ?
(५) एक विचार यह भी होता है कि ऐसे अलौकिक एवं अमत के समान उपकारी तीर्थ को मनष्यों की पहुँच के परे क्यों रखा गया ? यदि वह मनुष्यों की पहँच के भीतर होता, तो भावुक उपासक बान-पजन का लाभ ले कर अपने जीवन को सफल करने का संतोष तो मानते ? तीर्थ भी बनाया और ओझल भी कर दिया ? समझ में नहीं आता कि भरतेश्वर ने भी उसे मनुष्यों द्वारा अस्पृश्य रखने का प्रयत्न क्यों किया?
(E) यदि अष्टापद का ओझल रखना उचित माना जाय, तो शत्रंजय सम्मेदशिखर आदि अन्य तीर्थों का क्यों नहीं ?
ऐसे अनेकों विचार उत्पन्न होते हैं, अस्तु ।
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