________________
तीर्थंकर चरित्र
ऊर्ध्व-लोक में वैमानिक देव रहते हैं । इसमें १२ देवलोक तो कल्पयुक्त छोटे-बड़े, स्वामी-सेवक और विविध प्रकार के व्यवहार से युक्त हैं और १ ग्रैवेयक, पाँच अनुतर विमान, कल्पातीत--छोटे-बड़े के व्यवहार रहित--अहमेन्द्र हैं।
___ भवनपति और व्यन्तर देवों में अशुभ लेश्या की विशेषता है। भवनपति देवों में परमाधामी जैसे महान् क्रूर प्रकृति के महा मिथ्यात्वी देव भी हैं। इनके मनोरंजन क्रूरतापूर्ण भी होते हैं। ज्योतिषी देवों की परिणति वैसी नहीं है। उनके आमोद-प्रमोद भी उतनी क्लिष्ट परिणति वाले नहीं होते । वैमानिक देवों की आत्म-परिणति उनसे भी विशेष प्रशस्त होती है । उत्तरोत्तर ऊँचे देवलोकों में वैषयिक रुचि एवं परिणति भी कम होती जाती है। ग्रेवेयक और अनुत्तर विमानवासी देवों में विषय-वासना नहीं होती। सब से उँचा देवलोक सर्वार्थ-सिद्ध महा विमान है । वहाँ परम शुक्ल-लेश्या वाले देव रहते हैं । अनुत्तर-विमानों में एकान्त सम्यग्दृष्टि और पूर्वभव में चारित्र के उत्तम आराधक महात्मा ही उत्पन्न होते हैं। ये अवश्य ही मोक्ष में जाने वाले होते हैं । सर्वार्थ-सिद्ध महा विमान के ऊपर सिद्ध शिला है। सिद्धशिला के ऊपर ठोकान पर सिद्ध भगवान् (मुक्त जीव) रहते हैं।
जो बुद्धिमान, अशुभ ध्यान का निवारण करने के लिए समग्र लोक अथवा लोक के किसी विभाग का चिन्तन करते हैं, उन्हें धर्मध्यान सम्बन्धी क्षयोपशमि कादि भाव की प्राप्ति होती है। उनकी तेजोलेश्या, पद्मलेश्या तथा शुक्ललेश्या शुद्धतर होती जाती है। उन्हें स्व-संवेद्य (स्वयं अनुभव करे ऐसा) अतीन्द्रिय सुख उत्पन्न होता है । जो स्थिर योगी महात्मा, निःसंग हो कर धर्मध्यान के चलते देह का त्याग करते हैं, वे ग्रैवेयकादि स्वर्गों में महान् ऋद्धिशाली उत्तम देव होते हैं । वहाँ वे अपना सुखी जीवन पूर्ण कर सम्पूर्ण अनुकूलता वाले उत्तम मनुष्य जन्म को प्राप्त करते हैं और उत्तम भोग भोगने के बाद संसार का त्याग कर, चारित्र-धर्म को उत्कृष्ट आराधना कर के सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हो जाते हैं।
गणधरादि की दीक्षा
अपने प्रथम उपदेश में तीर्थंकर भगवान् ने धर्म-ध्यान का स्वरूप बताया । उपदेश सुन कर महाराजा सगर चक्रवर्ती के पिता सुमित्रविजय (भगवान् के काका जो भाव संयती के रूप में संसार में रहे थे) आदि हजारों नर-नारियों ने धर्म साधना के लिए संसार का त्याग कर दिया। एक साथ हजारों व्यक्ति मोक्ष की महायात्रा के लिए चल पड़े।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org