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तीर्थकर चरित्र
द्रव्य-विषाक--स्त्री, पुष्पों की माला और रुचिकर खाद्य आदि द्रव्यों के उपभोग से 'शुभ विपाक' कहाता है और सर्प, शस्त्र, अग्नि तथा विष आदि से जो दु:खद अनुभव होता है, वह 'अशुभ विपाक' कहाता है ।
क्षेत्र-विपाक-प्रासाद, भवन, विमान और उपवनादि में निवास करना शुभविपाक रूप है और श्मशान, जंगल, अटवी आदि में विवश हो कर रहना, अशुभ विपाक रूप है ।
काल-विपाक-शीत और उष्ण से रहित ऐसी बसंत आदि ऋतु में भ्रमण करना शुभ विपाक है और शीत, उष्ण की अधिकता वाली हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में भ्रमण करना पड़े, तो यह अशुभ विपाक है।
भाव-विपाक--मन की प्रसन्नता और संतोष में शुभ विपाक और क्रोध, अहंकार तथा रौद्रादि परिणति में अशुभविपाक होता है ।
भव-विपाक-देव-भव और भोग-भूमि सम्बन्धी मनुष्यादि भव में शुभ विपाक और कुमनुष्य (जहाँ पापाचार की मुख्यता हो, जिनके संस्कार अशुभ हों और अशुभ कर्मों के उदय से अनेक प्रकार के अभाव दरिद्रतादि दुःख भोग रहे हों) तिर्यच तथा नरकादि भव में अशुभ विपाक होता है । कहा भी है कि----
"द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव को प्राप्त कर, कर्मों का उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम होता है ।" इसी प्रकार प्राणियों को द्रव्यादि सामग्री के योग से, कर्म अपना फल देते हैं।
कर्म के मुख्यतः आठ भेद हैं । यथा
१ ज्ञानावरणीय--जिस प्रकार आँखों पर पट्टी बाँधने से, नेत्र होते हुए भी दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार जिस कर्म के आवरण से सर्वज्ञ स्वरूपी जीव की ज्ञान-शक्ति दब जाती है, वह ज्ञानावरणीय कर्म कहाता है। इसके १ मति २ श्रुत ३ अवधि ४ मनःपर्यय और ५ केवलज्ञानावरण, ये पाँच भेद हैं।
२ दशनावरणीय--पाँच प्रकार की निद्रा और चार प्रकार के दर्शन के आवरण से दर्शन-शक्ति को दबाने वाला कर्म । जिस प्रकार पहरेदार, राजा आदि के दर्शन होने में रुकावट डालता है, उसी प्रकार दर्शन-शक्ति को रोकने वाला।
३ वेदनीय--तलवार की तीक्ष्ण धार पर रहे हुए मधु को चाटने के समान यह कर्म है । जिस प्रकार तलवार की धार पर रहे हुए मधु को चाटने से, मधु की मिठास के साथ जीभ कटने की दुःखदायक वेदना भी होती है, उसी प्रकार सुखरूप और दुःखरूप
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