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________________ भ० अजितनाथजी - धर्म देशना-धर्म-ध्यान लिए सुलभ, आचार्य के लिए रत्न-भण्डार के समान और मनुष्यों तथा देवों के लिए सदैव स्तुति करने योग्य है । ऐसे आगम-वचनों की आज्ञा का अवलम्बन कर के, स्यादवाद न्याय के योग से द्रव्य और पर्याय रूप से, नित्यानित्य वस्तुओं का विचार करना और स्वरूप तथा पर रूप से सत् असत् रूप में रहे हुए पदार्थों में स्थिर प्रतीति करना - 'आज्ञा-विचय' ध्यान कहलाता है । १२९ अपाय-विचय जिन जीवों ने जिनमार्ग का स्पर्श ही नहीं किया, जिन्होंने परमात्मा को जाना ही नहीं और जिन्होंने अपने भविष्य का विवार ही नहीं किया, ऐसे जीवों को हजारों अपाय ( विघ्न - - संकट) उठाने पड़ते हैं । जिसका चित्त माया-मोह के अंधकार से परवश हो गया है, ऐसा प्राणी अनेक प्रकार के पाप करता है और अनेक प्रकार के अपाय ( कष्ट-- दुःख सहता है । ऐसा दुःखी प्राणी यदि विचार करे कि- "नारकी, तिथंच और मनुष्यों में मैने जो-जो दुःख भुगते हैं, वे सभी मैंने अपने अज्ञान और प्रमाद से ही उत्पन्न किये थे । परम बोधिबीज को प्राप्त करने पर भी अविरत रह कर मन, वचन और काया की कुचेष्टाओं से मैने अपने ही मस्तक पर अग्नि प्रज्वलित करने के समान पाप-कृत्य किया और दुखी हुआ । बोधिरत्न ( सम्यग्दर्शन ) प्राप्त कर लेने पर मोक्षमार्ग मेरे सामने खुला हुआ था, किन्तु मैने उसकी उपेक्षा की और कुमार्ग पर रुचिपूर्वक चलता रहा । इस प्रकार मैने स्वयं ने ही अपनी आत्मा को अपायों के गर्त में गिरा दिया। जिस प्रकार उत्तम राज्य लक्ष्मी प्राप्त होते हुए भी (अत्यागी ) मूर्ख मनुष्य, भीख माँगने के लिए भटकता रहता है, उसी प्रकार मोक्ष का साम्राज्य प्राप्त करना मेरे अधिकार में होते हुए भी में अपनी आत्मा को संसार में परिभ्रमण करा रहा हूँ और दुःख-परम्परा का निर्माण कर रहा हूँ। यह मेरी कितनी बुरी वृत्ति है । इस प्रकार राग, द्वेष और मोह से उत्पन्न होते हुए अपायों का चिन्तन किया जाय, उसे ' अपाय- विचय' नाम का धर्म - ध्यान कहते हैं । Jain Education International विपाक-विचय कर्म के फल को 'विपाक' कहते हैं । यह विपाक शुभ और अशुभ, दो प्रकार का होता है और द्रव्य क्षेत्रादि की सामग्री से यह विपाक विचित्र रूप में अनुभव में आता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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