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तीर्थकर चरित्र
और आडम्बरपूर्वक भगवान् को वन्दन करने आये । भगवान् ने अपनी अमोघ देशना प्रारम्भ की।
धर्म देशना-धर्मध्यान
" सुखाथियों ! जीव अज्ञान से इतने व्याप्त हैं कि उन्हें हिताहित का वास्तविक बोध ही नहीं होता। जिस प्रकार अज्ञान के कारण जीव काँच को वैदूर्यमणि समझ कर ग्रहण कर लेता हैं, उसी प्रकार इस दुःखमय असार संसार को सुखमय एवं सारयुक्त मानता है। अज्ञान के कारण विविध प्रकार के बँधते हुए कर्मों से प्राणियों का संसार बढ़ता ही जा रहा है । कर्मों की वृद्धि से संसार बढ़ता हैं और कर्मों के अभाव से संसार का अभाव होता है। इसलिए विद्वानों को कर्मों के नाश करने का ही उपाय करते रहना चाहिये ।
दुर्ध्यान से कर्मों की वृद्धि होती है और शुभ ध्यान से कर्मों का नाश होता है। कर्म-मैल को समूल नष्ट करने वाले शुभ ध्यान का स्वरूप इस प्रकार है
धर्मध्यान--आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान चिंतन रूप चार प्रकार का है।
आज्ञा-विचय
आप्त पुरुषों का वचन 'आज्ञा' कहाती है । यह आज्ञा दो प्रकार की होती है-- एक है 'आगम आज्ञा' और दूसरी है--'हेतुवाद आज्ञा' । जो शब्द से ही पदार्थों का प्रतिपादन करता है, वह 'आगम' कहाता है और जो दूसरे प्रमाणों के संवाद से पदार्थों का प्रतिपादन करता है, वह 'हेतुवाद' कहाता है।
आगम और हेतुवाद के तुल्य प्रमाण से एवं निर्दोष कारणों से जो आरंभ हो, वह लक्षण से 'प्रमाण' कहाता है । राग, द्वेष और मोह ये 'दोष' कहाते हैं। इनको सर्वथा नष्ट करने के कारण, अहंत में ये दोष बिलकुल नहीं होते । इसलिए दोष रहित आत्मा से उत्पन्न हआ अर्हतों का वचन प्रमाण होता है । अहंतों का वचन, नय और प्रमाण से सिद्ध, पूर्वापर विरोध रहित, अन्य बलवान शासनों से भी बाधित नहीं होने वाला, अंग उपांग एवं प्रकीर्णादि बहुत-से शास्त्र रूपी नदियों के मिलन से समुद्र रूप बना हुआ, अनेक प्रकार के अतिशयों की साम्राज्य-लक्ष्मी से सुशोभित, दुर्भव्य मनुष्यों के लिए दुर्लभ, भव्य जीवों के
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