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________________ टिप्पणी सुनार की कथा का औचित्य महाराजाधिराज भरत के विषय में यह कथा प्रचलित है कि--उनकी निलिप्तता के विषय में जिनेश्वर भगवान् ने समवसरण में कहा था-“भरत चक्रवर्ती सम्राट है। छ:खड का अधिपति, चौदह रत्न, नौ निधान और हजारों सुन्दरी रानियों का पति है। इतना वैभवशाली होते हुए भी वह जल-कमलवत् निर्लिप्त है।" प्रभु का यह वचन एक सुनार को नहीं जंचा । वह इधर उधर बातें करने लगा-- "भरतेश्वर, भगवान् के पुत्र हैं और चक्रवर्ती सम्राट हैं । पुत्र-मोह अथवा भरतेश्वर को खुश करने के लिए भगवान् ने यह बात कही है । वास्तव में वे निर्लिप्त नहीं है। क्या इतना वैभवशाली, राज्य के लिए युद्ध करने वाला और हजारों रानियों के साथ काम-भोग भोगने वाला भी कभी निलिप्त-निष्काम रह सकता है ?" सुनार की बात महाराजा भरत के कानों में गई। उन्होंने सुनार को बुलाया और तेल से भरपूर कटोरा हाथ में दे कर कहा-- “तुम यह कटोरा ले कर सारे नगर में घूमो । नगर की शोभा देखो और फिर मेरे पास आओ। परन्तु याद रखो कि इस कटोरे में से एक बूंद तेल भी नीचे गिरा, तो इन सैनिकों की तलवार तुम्हारी गर्दन पर फिरी । तुम वहीं ढेर कर दिये जाओगे।" सैनिकों से घिरा हुआ स्वर्णकार, तेल से भरा हुआ कटोरा लिये हुए नगरभर में घुमा, किंतु इतनी सावधानी के साथ कि एक बूंद भी नहीं गिरने दिया। वह सम्राट के समक्ष उपस्थित हआ। सम्राट ने उससे नगर की शोभा का हाल पूछा । वह बोला;-- हाराज ! मेरा ध्यान तो इस कटोरे में था। यदि मैं एकाग्र नहीं रह कर इधर-उधर देखता तो वहीं जीवन समाप्त हो जाता । आपके ये यमदूत जो नंगी तलवारें ले कर साथ थे। मै नगरभर में घुमा, परन्तु मेरा ध्यान तो इस कटोरे पर ही केन्द्रित रहा। जरा भी इधर-उधर नहीं गया। फिर शोभा निरखने का तो अवकाश ही कहाँ था-महाराज !" भरतेश्वर ने कहा-“भद्र ! जिस प्रकार तू नगरभर में घूमा, फिर भी तेरा ध्यान एकाग्र रहा, उसी प्रकार में भी इस सारे वैभव का अधिपति होते हुए भी अन्तर से निलिप्त रहता है।" स्वर्णकार का समाधान हो गया। उपरोक्त कथा का भाव अपने शब्दों में उपस्थित किया है। किन्तु यह जंचती कम है। माना कि भरतेश्वर की आत्मा उच्च प्रकार के संयम की साधना कर के स्वर्ग में गई थी। उनकी आत्मा बहत हलकी थी। वे इसी भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले थे, फिर भी उनके उत्कृष्ट भोग-कर्मों का उदय था। लाखों पूर्व काल तक वे भोगासक्त रहे थे। उनके भोग का वर्णन जब हम 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र' में देखते हैं. तो लगता है कि वे उत्कृष्ट भोग-पुरुष थे। श्री हेमचन्द्राचार्य यहाँ तक लिखते हैं किखण्ड-साधना के समय (स्त्री-रत्न प्राप्त होने के बाद भी) हजार वर्ष तक गंगादेवी के साथ भोग भोगते रहे और सेना वही पड़ी रही (पर्व १ सर्ग ४) उनके सन्तानें भी थी। ऐसी दशा में उन्हें मशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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