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निर्लिप्त मानना जंचता नहीं है । हाँ, कभी-कभी उनकी आत्मा में पूर्व के संस्कार जाग्रत होते और वे निलिप्तता की स्थिति में आ जाते, किंतु फिर मोह के झपाटे से वे कामासक्त भी हो जाते थे । अप्रत्याख्यानावरण कषाय और वेद - मोहनीयादि के उदय से ऐसा होना असंभव नहीं है । यह भी ठीक है कि उनको जो बन्ध होता था, वह तीव्रतम और भवान्तर में भोगने रूप गाढ़ निकाचित नहीं था । फिर भी उन्हें बन्ध होता ही था । वे निर्लिप्त, अनासक्त एवं निष्काम नहीं थे । अतएव यह कथा कुछ अतिशयोक्ति पूर्ण लगती है । जो व्यक्ति गृहस्थवास में रहता हुआ भी कम से कम ब्रह्मचारी, आवेश रहित और विकार रहित-सा हो, उसी पर सुनार का दृष्टान्त लागू हो सकता है ।
यह कथा श्री हेमचन्द्राचार्य के 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' में नहीं है । ' तेलपात्रधर' का दृष्टांत हमें 'ऋषिभाषित ' सूत्र के ४५ वें मिला । वह गाथा इस प्रकार है
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तीर्थंकर चरित्र
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'तम्हा पाणदयट्ठाए, 'तेल्लपत्तधरो' जधा ।
एगग्गमणीभूतो दयत्थी विहरे मुणी ॥ २२ ॥”
- दयार्थी मुनि, प्राणियों पर दया करने के लिए, तेलपात्रधारक के समान एकाग्र मन हो कर
विचरे ।
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उपरोक्त गाथा में तेलपात्रधर की एकाग्रता का दृष्टांत है । इनमें तथा इनकी टीका में इस दृष्टांत के विषय में कुछ भी नहीं लिखा है । टीका भी संक्षिप्त है । टीकाकार ने इस दृष्टांत को अप्रमत्तता प्रदर्शक बताया है । जैसे
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अध्ययन की २२ वीं गाथा में
'तस्मात् प्राणिदयार्थमेकाग्रमनाभूत्वा दयार्थी मुनिरप्रमत्तो विहरेद् यथा कश्चितैलपात्रधरः ।"
तेलपात्रधर की यह कथा आचार्य श्री हरीभद्रसूरिजी रचित्त " उपदेश पद " ग्रंथ की गाथा ९२२ से ९३१ तक विस्तार से मिलती है । वे गाथाएँ इस प्रकार है;
"इह तेल्लपत्तिधारगणायं तंतंतरेसुवि पसिद्धं ।
अइगंभीरत्थं खलु भावेयव्यं पयत्तेण ।। ९२२ ॥ सो पण्णो राया पायं तेणोवसामिओ लोगो ।
जियनगरे अवरं कोति सेट्ठिपुत्तो ण कम्मगुरू ।।९२३।। सो लोगगहा मण्णइ हिसंपि तहाविहं ण दुट्ठति ।
हिसाणं सुभावा, दुहावि अत्थं तुदुद्देयं ।। ९२४ ॥ अपमाय सारयाए णिव्विसयं तह जिणोवएस पि ।
तक्खगफणरयणगयं सिरत्तिसमणोवएसंव ।। ६२५ ।।
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