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________________ भरतेश्वर को केवलज्ञान और निर्वाण भरतेश्वर को भगवान् के मोक्ष-गमन का गहरा आघात लगा । उनके मन पर से शोक का प्रभाव हटता ही नहीं था । वे चिन्तामग्न रहने लगे । मन्त्रियों को चिन्ता हुई । उन्होंने मिल कर निवेदन किया--" भगवान् ने तो अपना मनोरथ सफल कर लिया । वे जन्म-मरण के फन्दे को तोड़ कर मृत्युंजय बन गये । वे परमात्मा अनन्त आत्म-सुखों में लीन हैं। उनके लिए शोक करना तो व्यर्थ ही है । अब आपका व हमारा कर्त्तव्य है कि हम शोकसंताप छोड़ कर अपना उत्तरदायित्व निभावें ।" मन्त्रियों के परामर्श से भरतेश्वर सम्भले और राज- कार्य में प्रवृत्त होने लगे । वे नगर के बाहर उपवन में घूमने जाया करते । कौटुम्बिकजन उन्हें उपवन-उद्यानों में ले जाते । वहाँ सुन्दर स्त्रियों का झुण्ड उपस्थित हो जाता और भरतेश्वर उनके साथ लतामण्डपों में जा कर इन्द्रियों के विविध प्रकार के रसों में निमग्न हो जाते । वे रानियों के साथ कुण्ड में उतर कर जल-क्रीड़ा भी करते रहते थे । भगवान् के मोक्ष-गमन के बाद पाँच लाख पूर्व तक उनका भोगी-जीवन रहा । वे कभी मोह में मस्त हो जाते, तो कभी विराग के भावों से विरक्त हो जाते । पूर्व-भव के चारित्र के संस्कार उनकी आत्मा को झकझोर कर जाग्रत करते रहते । उदित पुण्य-बन्ध को वेदते और निर्जरते हुए काल व्यतीत होने लगा और वेद - मोहनीयादि प्रकृति का बल भी कम होने लगा । घातीकर्मों की प्रकृतियों के क्षय होने का समय निकट आ रहा था । एक बार वे जल-क्रीड़ा के पश्चात् वस्त्राभूषण से सज्ज हो कर अंतःपुर के आदर्श भवन में गये । वहाँ शरीर प्रमाण ऊँचे, निर्मल एवं उज्ज्वल दर्पण में अपने शरीर को देखने लगे । देखते-देखते उन्हें पुद्गल की परिवर्तनशीलता का विचार हुआ । अवस्था के अनुसार शरीर में परिवर्तन होने का दृश्य, उनकी दृष्टि में स्पष्ट हुआ । इस दृश्य ने उन्हें अनित्य भावना में जोड़ कर धर्मध्यान में लगा दिया। धर्मध्यान में तल्लीन होने के बाद वर्धमान परिणाम से वे शुक्लध्यान में प्रवेश कर गए और क्षपकश्रेणी चढ़ कर समस्त घातीकर्मों को नष्ट कर के सर्वज्ञ सर्वदर्शी बन गए। भगवान् भरतेश्वर ने वस्त्रालंकार उतारे, केशों का लोच * ग्रंथकार लिखते हैं कि - भरतेश्वर की अंगुली में से एक अंगुठी निकल कर गिर गई थी । शरीर निरीक्षण के समय अंगुली को सूनी--नंगी- अशोभनीय देख कर उन्हें विचार हुआ कि - " क्या इस शरीर की शोभा, इन दूसरे पुद्गलों से ही है ? इन्हीं से यह शोभनीय दिखाई देता है ?" इस विचार ने दूसरी अंगुली से भी अंगुठी निकलवाई। वह भी वैसी ही अशोभनीय लगने लगी । फिर तो क्रमशः सारे शरीर के आभूषणों को उतार दिया । अब तो सारा शरीर ही अशोभनीय लगने लगा । इस पर से देह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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