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भ० ऋषभदेवजी--मरीचि की कथा
नहीं करते ?' तो वह अपनी अशक्ति ही बताता । यदि उसके प्रतिबोध से कोई विरक्त हो कर दीक्षा लेना चाहता, तो उसे वह भगवान् के पास भेज कर दीक्षा दिलवाता ।
इस प्रकार विचरते हुए कालान्तर में मरीचि के शरीर में असह्य रोग उत्पन्न हुआ। संयम-भ्रष्ट होने के कारण किसी भी साधु ने उसकी वैयावृत्य नहीं की। सेवा एवं सान्त्वना के अभाव में वह रोग उसे विशेष पीडाकारी लगा । उसे विचार हुआ--"हा, मैं अकेला रह गया। ऐसे विकट समय में कोई भी साधु मेरी सम्भाल नहीं करता। मैं सर्वथा निरा. धार हो गया। यह मेरा ही दोष है । ये शुद्धाचारी श्रमण मेरे जैसे हीनाचारी से सम्बन्ध नहीं रखते । यह इन का दोष नहीं है । जिस प्रकार उत्तम कुल के व्यक्ति, हीन कुल वाले म्लेच्छ से सम्बन्ध नहीं रखते, उसी प्रकार ये निरवद्य चर्या वाले श्रमण भी अपनी मर्यादा में रहते हुए मझ सावध प्रवृति वाले की सेवा नहीं करते। इन उत्तम निग्रंथों से सेवा कराना भी मुझे उचित नहीं हैं। क्योंकि इससे व्रत-भंजक पापाचारी का समर्थन होता है और अव्रत की वृद्धि होती है । जि । प्रकार गधे और गजराज का साथ नहीं रहता, उसी प्रकार मुझसे इनका सम्बन्ध एवं सहयोग नहीं रहता"--इस प्रकार विचार करते वह मन को शान्त करने लगा। रोग का प्रकोप कम हुआ और वह क्रमशः रोग मुक्त हो गया।
किसी समय भगवान् के पास एक 'कपिल' नामका राजपुत्र आया। उसने धर्मोपदेश सुना, किन्तु प्रभु का उपदेश उसे रुचिकर नहीं हुआ। वह दुर्भव्य था। उसने विचित्र वेश वाले मरीचि को देखा । वह उसके पास आया और उसको धम सुनाने का आग्रह किया। मरीचि ने कहा--" यदि तुम्हें धर्म चाहिए, तो भगवान् के पास ही जाओ। धर्म वही है, मेरे पास नहीं है।" कपिल फिर भगवान् के पास आया। उसके जाने बाद मरीचि को विचार हुआ कि--'यह पुरुष भी कैसा दुर्भागी है, जिसे भगवान् का उत्तमोत्तम धर्म नहीं रुवा और मेरे पास आया।" वह इस प्रकार सोच ही रहा था कि कपिल पुनः मरीचि के पास आया और कहने लगा -
" मुझे तो उनका धर्म अच्छा नहीं लगा । आपके पास भी धर्म होना ही चाहिए। यदि आप अपना धर्म मुझे सुनावें, मैं सुनना चाहता हूँ।"
मरीचि ने सोचा--" यह भी कोई मेरे जैसा ही है । अच्छा है, मुझे भी एक सहायक की आवश्यकता है। यदि यह मेरा शिष्य बन जाय, तो मेरे लिए लाभदायक ही होगा।" इस प्रकार विचार कर उसने कहा ;--
"धर्म तो मेरे पास भी है और वहाँ भी है। यदि मेरे पास धर्म नहीं होता. तो मैं
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