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इस प्रकार क्यों रहता ।"
मरीचि ने इस प्रकार उत्सूत्र-भाषण कर के कोटानुकोटि सागरोपम प्रमाण उत्कट कर्म का बन्ध किया और संसार भ्रमण बढ़ाया। उसने कपिल को दीक्षित कर के अपना शिष्य बनाया । उसी समय से परिव्राजक की परम्परा स्थापित हुई ।
मरीचि अंतिम तीर्थंकर होंगे
तीर्थंकर चरित्र
कालान्तर में जिनेश्वर भगवान् ग्रामानुग्राम विचरते हुए पुनः अष्टापद पर्वत पर पधारे । भरतेश्वर अपने परिवार के साथ वन्दन करने आये । धर्मोपदेश सुनने के बाद विनयपूर्वक पूछा --
" प्रभो ! भविष्य में आपके समान और भी कोई धर्मनाथक, धर्मचक्रवर्ती इस भरतखण्ड में होगा ?"
--हां, भरत ! इस अवसर्पिगी काल में मेरे बाद और भी तेईस तीर्थंकर होंगे और तेरे अतिरिक्त ग्यारह चक्रवर्ती नरेश होंगे ।" प्रभु ने भावी तीर्थंकरों और चक्रवर्तियों का समय और नाम गोत्रादि सुनाया और वासुदेव प्रतिवासुदेव का वर्णन भी सुनाया । सम्राट ने पुनः प्रश्न किया; —
" हे नाथ ! इस महापरिषद् में ऐसा कोई भाग्यशाली जीव है, जो भविष्य में तीर्थंकर पद प्राप्त कर के भव्य जीवों का उद्धारक बनेगा ?"
--" वह त्रिदण्ड धारण किया हुआ तुम्हारा पुत्र मरीचि, अभी तो मलिन हो गया है, किन्तु भविष्य में वह 'त्रिवृष्ट' नानका प्रथम वासुदेव होगा, फिर कालान्तर में पश्चिम महाविदेह में 'पुष्यमित्र' नामका चक्रवर्ती नरेश होगा । उसके बाद बहुत संसार परिभ्रमण कर के इसी भरत-क्षेत्र में 'महावीर' नाम का चौबीसवाँ तीर्थंकर होगा और मुक्त हो जायगा ।"
भगवान् से भविष्यवाणी सुन कर भरतेश्वर मरीचि के निकट आये और शिष्टाचार साधते हुए बोले
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मैं तुम्हारे इस पाखण्ड के कारण तुम्हें आदर नहीं देता और न तुम्हें वन्दना करने के लिए आया हूँ | मैं तुम्हें प्रभु की कही हुई यह भविष्यवाणी सुनाने आया हूँ कि तुम भविष्य में इस भरत -क्षेत्र में प्रथम वासुदेव और कालान्तर में महाविदेह चक्रवर्ती और
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