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________________ मीचि की कथा भरतेश्वर का पुत्र " मरीचि' भी भगवान् ऋषभदेवजी का सर्वत्यागी शिष्य था । वह स्वभाव से ही सुकुमार और कष्ट सहन करने में कच्चा था । ग्रीष्म ऋतु के मध्यान्ह के प्रचण्ड ताप से तप्त भूमि पर चलते हुए मरीचि के पांव जलने लगे, पसीना बहने लगा, शरीर पर धूल लग कर चिपकने लगी और मैल की दुर्गन्ध आने लगी । प्यास के मारे गला सूखने लगा। इस प्रकार के परीषहों से मरीचि घबड़ा उठा । उसकी भावना डिग गई, किन्तु अपने कुल का गौरव उसे पकड़े रहा । उसने सोचा--" में चक्रवर्ती सम्राट भरतेश्वर का पुत्र और प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का पौत्र हूँ। मुझे कायरों की भाति संयमभ्रष्ट होना शोभा नहीं देता ।" इन विचारों ने उसे साधुता त्याग कर पु:न संसारी बनने से तो रोक दिया, किन्तु व्याप्त शिथिलता के कारण उसका निर्दोष रीति से संयम पालना असंभव हो गया उसने निश्चय किया कि-- "भगवान् के साधु तो मन, वचन और काया के तीनों दण्ड को जीते हुए हैं, किंतु मैं इन तीनों दण्डों से दण्डित हैं, इसलिए मैं 'त्रिदण्डी' बनंगा। श्रमण अपने सिर र के केशों का लोच इन्द्रियों का जय कर के मुण्डित सिर रहते हैं, किन्तु में लोच परीषह सहन नहीं कर सकता, इसलिए उस्तरे से मुंडन कराउँगा और शिखा धारण करूँगा। ये अनगार महात्मा स्थावर और त्रस जीवों की विराधना से विरत हैं, तब मैं केवल त्रस जीवों के वध से ही विरत रहूँगा। ये निग्रंथ सर्वथा अपरिग्रही हैं, किंतु मैं तो स्वर्ण-मुद्रिका रखूगा। ये सर्वत्यागी संत उपानह भी नहीं पहिनते, किन्तु में तो पैरों में जूते पहिन कर काँटे, कंकर और गरमी के कष्ट से बचूंगा । ये शील की सुगन्धि से सुगन्धित एवं शीतल हैं, तब मैं चन्दन का लेप कर सुगन्धित एवं शीतल बनूंगा। मैं शीत और ताप से बचने के लिए छत्र धारण व रूँगा । ये श्वेत वस्त्र पहिनते हैं, तो मैं कषाय से कलुषित होने के कारण कषैलागेरुआ वस्त्र धारण करूँगा । ये मैल का परीषह जीत चुके हैं, किन्तु में तो परिमित जल से स्नान एवं पान करूँगा।" इस प्रकार अपने-आप विचार कर के अपना लिंग–वेश और आचार स्थिर किया और तद्नुसार आचरण करता हुआ भगवान् के साथ ही विचरने लगा। जिस प्रकार खच्चर, न तो घोड़ा कहलाता है और न गधा ही, उसी प्रकार मरीचि न तो साधु रहा, न गहस्थ ही । मरीचि के इस विचित्र वेश और आचार को देख कर लोग उससे उसके धर्म का उपदेश देने का आग्रह करने लगे, तो वह निग्रंथ-मुनियों के मूलगुण और उत्तरगुण वाले धर्म का ही उपदेश करता। यदि कोई उसे छता कि 'आप इस धर्म का पालन क्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrady.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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