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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५०
गुणसंक्रम होता था, वैसे अन्तरकरण में प्रवेश करने के बाद भी अन्तमुहूर्त पर्यन्त गुणसंक्रम होता है । अन्तर्मुहूर्त बीतने के बाद गुणसंक्रम के अन्त में विध्यातसंक्रम होता है। विध्यातसंक्रम द्वारा मिश्र और मिथ्यात्व के दलिकों को सम्यक्त्वमोहनीय में संक्रमित करता है।
इस प्रकार से दर्शनमोहनीय का उपशम होने के बाद संक्लेश और विशुद्धि से प्रमत्तत्व और अप्रमत्तत्व का अनेक बार अनुभव कर प्रमत्त से अप्रमत्त और अप्रमत्त से प्रमत्त गुणस्थान में जाकर चारित्रमोहनीय की उपशमना करने का प्रयत्न करता है । जिसका क्रम इस प्रकार है-- पुणरवि तिम्नि करणाई करेइ तइयंमि एत्थ पूण भेओ। अन्तोकोडाकोडी बंधं संतं च सनण्हं ॥५०॥ __ शब्दार्थ-पुणरवि-पुनः भी, तिन्नि कर णाई-तीन करण, करेइ-करता है, तइयंमि-तीसरे में, एत्थ-यहाँ, पुण—पुनः, भेओ-भेद, अन्तर, विशेष, अन्तोकोगकोडी-अन्तःकोडाकोडी, बंधं-बन्ध, संत-सत्ता, च-और, सत्तण्हं-सात कर्मों का।
गाथार्थ-चारित्रमोहनीय की उपशमना करते पुनः भी तीन करण करता है। तीसरे करण में यह विशेष है कि वहाँ सात कर्मों का बन्ध और सत्ता अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण करता है।
विशेषार्थ-चारित्रमोहनीय की उपशमना करता जीव भी यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करता है। उनमें से यहाँ चारित्रमोहनीय की
१ यहाँ सामान्यतः मिथ्यात्व और मिश्र का सम्यक्त्व में संक्रम होता है ऐसा
संकेत किया है लेकिन मिथ्यात्व का मिश्र में भी इसी प्रकार संक्रम होता
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