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________________ ६६ पंचसंग्रह : e शेष कथन प्रथमोपशमवत् जानना चाहिये | अन्तमुहूर्त के बाद दर्शनद्विक का विध्यातसंक्रम प्रवर्तित होता है । संक्लेश और विशुद्धि से अनेक बार प्रमत्त और अप्रमत्त में जाता है । विशेषार्थ - वैमानिक देव की जिसने आयु बांधी है, ऐसा कोई जीव प्रथम अनन्तानुबन्धि क्षय करने के बाद दर्शनमोह का क्षय करके क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त कर चारित्रमोहनीय की उपशमना का प्रयत्न करता है । अथवा प्रथम अनन्तानुबन्धि का क्षय या उपशम करने के बाद दर्शनत्रिक को उपशमित करके भी कोई चारित्रमोहनीय की उपशमना का प्रयत्न करता है । वह दर्शनत्रिक की उपशमना श्रमणपने में ही करता है । दर्शनत्रिक की उपशमना करते हुए यथाप्रवृत्तः अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन करण होते हैं । मात्र अन्तरकरण करते अनुदित मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीय की प्रथम स्थिति आवलिकामात्र और उदयप्राप्त सम्यक्त्वमोहनीय की प्रथमस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है । तीनों के अन्तरकरण के दलिकों को सम्यक्त्वमोहनीय की प्रथमस्थिति में डालता है तथा मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीय के प्रथमस्थितिगत दलिक स्तिबुकसंक्रम द्वारा सम्यक्त्वमोहनीय की उदयावलिका में संक्रमित होते हैं। सम्यक्त्वमोहनीय का प्रथम स्थिति विपाकोदय द्वारा अनुभव करते क्षीण होती है तब औपशमिक सम्यग्दृष्टि होता है। तीनों के द्वितीय स्थितिगत दलिकों को अनन्तानुबन्धि की तरह उपशमित करता है और शेष कथन प्रथमोपशम सम्यक्त्व की तरह समझ लेना चाहिए । जैसे दर्शनत्रिक को उपशमित करते अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व तथा मिश्रमोहनीय के दलिकों का सम्यक्त्वमोहनीय में १ इन तीनों का स्वरूप पूर्व में मिथ्यात्व या अनन्तानुबन्धि की उपशमना के प्रसंग में कहा है, वैसा ही यहाँ समझ लेना चाहिये । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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