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उपशमनादि करण त्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४८, ४६
सत्ता वाला और कितने ही आचार्यों के मत से अनन्तानुबन्धि की उपशमना करके अट्ठाईस प्रकृतिक सत्ता वाला दर्शनमोहत्रिक उपशमित करता है। उसके बाद चारित्रमोहनीय की उपशमना के लिए प्रयत्न करता है । अनन्तानुबन्धि की विसंयोजना और उपशमना कैसे करता है, इसका पूर्व में संकेत किया जा चुका है।
इस प्रकार से चारित्रमोहनीय की उपशमना के अधिकारी का संकेत करने के अनन्तर अब उसी प्रसंग में दर्शनत्रिक की उपशमना की विधि बतलाते हैं। दर्शनत्रिक उपशमना विधि
अहवा दंसणमोहं पढम उवसामइत्तु सामण्णे । ठिच्चा अणुदइयाणं पढमठिई आवली नियमा ॥४८॥ पढमुवसमंव सेसं अन्तमुहुत्ताउ तस्स विज्झाओ। संकेसविसोहिओ पमत्तइयरत्तणं बहुसो ॥४६॥
शब्दार्थ-अहवा--अथवा, दंसणमोहं-दर्शनमोह को, पढम-प्रथम, उवसामइत्तु-उपशमित करके, सामणे-श्रमणपने में, ठिच्चा-रहकर, अणुदइयाणं-अनुदितों की, पढमठिई-प्रथम स्थिति, आवलो-आवलिका मात्र, नियमा--नियम से। ___ पढमुवसमंव-प्रथमोपशम वत्, सेसं-शेष, अन्तमुत्ताउ-अन्तर्मुहूर्त के बाद, तस्स-उसका (दर्शनद्विक का), विज्झाओ-विध्यातसंक्रम, संकेस विसोहि प्रो-संक्लेश और विशुद्धि से, पमत्तइयरत्तणं--प्रमत्त और इतर (अप्रमत्त) में, बहुसो-अनेक बार।
गाथार्थ-अथवा प्रथम श्रमणपने में रहकर दर्शनमोह को उपशमित करके चारित्रमोह की उपशमना करता है। अनुदित (मिथ्यात्व और मिश्रमोहनीय की) प्रथम स्थिति आवलिका मात्र होती है।
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