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________________ ६८ पंचसंग्रह : ६ उपशमना करते सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में यथाप्रवृत्त आठवें में अपूर्वकरण और नौवें गुणस्थान में अनिवृत्तिकरण जानना चाहिए। अपूर्वकरण में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि, अबध्यमान समस्त अशुभप्रकृतियों का गुणसंक्रम और अपूर्व स्थितिबन्ध पूर्व की तरह होता है। अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिघात आदि पाँचों पद प्रवृत्त होते हैं। इस करण में दूसरी विशेषता इस प्रकार है-अनिवृत्ति करण के प्रथम समय में आयु के सिवाय सात कर्मों का बन्ध और सत्ता अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण करता है। यद्यपि इससे पूर्व हुए अपूर्वकरणादि करणों में भी उतना ही बंध और सत्ता होती है, लेकिन उस बन्ध और सत्ता से नौवें गुणस्थान का बन्ध और सत्ता असंख्यातगुणहीन यानि असंख्यात भाग प्रमाण समझना चाहिए तथा यद्यपि यहाँ बन्ध और सत्ता समान माजूम होती है, किन्तु बन्ध की अपेक्षा सत्ता अधिक समझना चाहिये । तथाठिइखंड उक्कोसंपि तस्स पल्लस्स संखतमभागं । ठितिखंडं बह सहस्से एक्केक्कं जं भणिस्सामो ॥५१॥ शब्दार्थ---ठिइखंडं--स्थितिघात, उक्कोसंपि--उत्कृष्ट से भी, तस्स--- उसका, पल्लस्स-पल्योपम का, संखतमभाग-संख्यातवें भाग, ठितिखडंस्थितिघात, बहु सहस्से--अनेक हजारों, ऐक्केक्कं-एक-एक में, जंजो , भणिस्सामो–कहूँगा। १ दर्शनत्रिक की उपशमना करने के बाद और चारित्रमोहनीय की उप शमना करते हजारों बार प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में जाता है, उसके बाद अपूर्वकरण में । इसमें अन्तिम बार जो अप्रमत्तत्व प्राप्त होने के बाद अपूर्वकरण में प्रवेश करता है, उस अप्रमत्तत्व को चारित्रमोहनीय की उपशमना करते यथाप्रवत्तकरण के रूप में समझना चाहिये। २ 'कर्मप्रकृति' में सत्ता और बन्ध सामान्य से अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण कहा है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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