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________________ पंचसंग्रह : ६ स्थापित करता है। उसके बाद के समयों में स्थितिस्थानों में हीनहीन यावत् चरम स्थिति पर्यन्त स्थापित करता है मात्र जिसका स्थितिघात होता है, वहां स्थापित नहीं करता है। ___ इसका आशय यह है कि दर्शनमोहनीय के क्षय के अधिकार में अकेली गुणश्रेणि जब होती है, तब दलिकों की रचना गुणश्रोणि शीर्ष तक ही होती है तथा उद्वलना और गुणश्रेणि दोनों जहां जुड़ी हुई होती हैं वहां गुणश्रोणि के शीर्ष तक पूर्व-पूर्व स्थान से उत्तरउत्तर स्थान में असंख्यात-असंख्यात गण दलिक स्थापित करता है और उसके बाद के स्थानों में जिनका स्थितिघात होता है, उनको छोड़कर शेष में हीन-हीन स्थापित करता है और जिनका स्थितिघात होता है, वहां बिल्कुल स्थापित नहीं करता है । तथा उक्किरइ असंखगुणं जाव दुचरिमति अन्तिमे खंडे । संखेज्जंसो खडइ गुणसेढीए तहा देइ ॥४५।। शब्दार्थ-उक्किरइ - उत्कीर्ण करता है, असंखगुणं-असंख्यात गुण, जाव-यावत्, दुचरिमंति-द्विचरम खंड पर्यत, अन्तिमे खंडे---- अन्तिम खंड में, संखेज्जंसो- संख्या तवे भाग, खंडइ-खंड करता है, गुणसेढीए-गुणश्रेणि से, तहा-उसी प्रकार, देइ- देता है। ___ गाथार्थ-प्रथम स्थितिखंड से उत्तरोत्तर स्थितिखंड असंख्यात-असंख्यात गुण बड़े-बड़े लेता हुआ यावत् द्विचरम स्थिति खंडपर्यन्त उत्कीर्ण करता है । चरम खंड संख्यात गुण बड़ा है, अतिम स्थितिखंड खंडित करते गुणश्रोणि के संख्यातवें भाग को खंडित करता है और गुणश्रेणि में देता है। विशेषार्थ-सम्यक्त्वमोहनीय की आठ वर्ष की सत्ता जब से रहती है, तब से स्थितिघात अन्तमुहूर्त प्रमाण होता है। मात्र उत्तरोत्तर अन्तर्मुहूर्त असंख्यात गुण-असंख्यात गुण होते हैं। उनके दलिकों को पूर्वोक्त क्रम से उदयसमय से लेकर स्थापित करता है इस प्रकार पूर्वपूर्व खंड की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुण बड़े-बड़े स्थिति खंड “पर्यन्त उत्कीर्ण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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