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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६
द्विचरम स्थितिखंड से अन्तिम स्थितिखंड -स्थितिघात संख्यात गुण बड़ा है । अन्तिम स्थितिखंड को खंडित करते हुए उसके साथ गुणश्रोणि के संख्यातवें भाग को भी खंडित करता है और खंडित होते हुए उस गुणोणि के संख्यातवें भाग के ऊपर की स्थिति उसकी अपेक्षा संख्यात गुणी बड़ी है। उसी चरमस्थितिखण्ड की स्थिति को उत्कीर्ण करता है। यानि अन्तमुहूर्त प्रमाण चरम खण्ड के साथ गुणश्रेणि का जितना भाग उत्कीर्ण किया जाता है, उस भाग से उसके बाद उत्कीर्ण किया जाता चरमस्थितिखण्ड संख्यात गुण बड़ा है। तात्पर्य यह कि गणश्रोणि के संख्यातवें भाग के साथ सम्पूर्ण चरम खण्ड को उत्कीर्ण करता है और वह चरम खण्ड गुणश्रोणि के संख्यातवें भाग से संख्यात मुण बड़ा है।
उसके दलिकों को उदयसमय से लेकर स्थापित करता है। उदयसमय में स्तोक, उसके बाद के उत्तरोत्तर स्थान में गुणश्रेणि शीर्ष पर्यन्त असंख्यात-असंख्यातगुण स्थापित करता है। चरमखण्ड को उद्वलित करते गुणश्रोणिशीर्ष से ऊपर स्थानों में दलिक बिल्कुल स्थापित नहीं करता है । क्योंकि वही दलिक उत्कीर्यमाण हैं। इस प्रकार अन्तिम खण्ड का दलिक समाप्त हो तब वह क्षपक कृतकरण कहलाता है। कृतकरण अर्थात जिसने करण पूर्ण किये हैं। क्योंकि यहाँ तीसरा अनिवृत्तिकरण पूर्ण होता है । तथाकयकरणो तक्काले कालंपि करेइ चउसु वि गइस् । वेइयसेसो सेढी अण्णयरं वा समारुहइ ॥४६॥
शब्दार्थ-कयकरणो-कृतकरण, तक्का ने-उसी समय, कालंपिकाल-मरण भी, करेइ-करता है, चउसु--चारों, वि-ही, गइसुगतियों में, वेइयसेसो- शेष भाग को अनुभव करने वाला, सेढी-श्रेणी, अण्णयर-अ ययरं किसी एक, वा-अथवा, समारहइ-प्राप्त करता है, आरोहण करता है।
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