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पंचसंग्रह : ६
जितनी स्थितिसत्ता थी, उसके संख्यातवें भाग जितनी ही चरम समय में सत्ता रहती है । तथा
एवं ठिइबंधो वि हु पविसइ अणियट्टिकरणसमयंमि । अप्पुव्वं गुणसेढिं ठितिरसखंडाणि बंधं च ॥३८॥ देसुवसमणनिकायणनिहत्तिरहियं च होय दिट्टितिगं। कमसो असण्णिचउरिंदियाइतुल्लं च ठितिसंतं ॥३६॥ ठितिखंडसहस्साइं एक्केक्के अंतरंमि गच्छंति । पलिओवम संखंसे दसणसंते तओ जाए ॥४०॥ शब्दार्थ-एव-इसी प्रकार, ठिबन्धो वि—(अपूर्व) स्थितिबंध भी, हु-निश्चयवाचक अव्यय, पविसइ—प्रवेश करता है, मणियट्टिकरणसमयंमिअनिवृत्तिकरण काल में, अप्पुव्वं-अपूर्व, गुगसेढि-गुणश्रेणि, ठितिरसखण्डाणि---स्थिति और रसघात, बंध-बंध, च-और ।
देसुवसमणनिकायणनिहत्तिरहियं देशोपशमना, निकाचना, निधत्तिरहित, च-और, होइ होती है, दिट्ठितिगं-दृष्टित्रिक, कमसो- क्रमशः, असण्णिचरिदियाइतुल्लं-असंज्ञी पंचेन्द्रिय और चतुरिन्द्रियादि के तुल्य, च--और, ठितिसंत-स्थितिसत्ता।
ठितिखण्डसहस्साइं-हजारों स्थितिखण्ड, एक्केक्के-एक-एक, अन्तरंमि--अन्तर में, गच्छन्ति-होते हैं, पलिओवमसंखसे-पल्योपम के संख्यातवें भाग, दंसणसंत-दर्शनमोहनीय की सत्ता, तओ-तब, जाएहोने पर।
गाथार्थ-इसी प्रकार अपूर्व स्थितिबन्ध भी होता है, तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है, उस समय अपूर्व श्रेणि, स्थिति और रसघात और बन्ध करता है । ___ अनिवृत्तिकरण में दृष्टित्रिक देशोपशमना, निकाचना, निधत्ति
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