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उपशमनादि करणत्रय-त्ररूपणा अधिकार : गाथा ३८, ३६, ४० ५५
रहित होती है और हजारों स्थितिघात होने के बाद असंज्ञी पंचेन्द्रिय और चतुरिन्द्रियादि के तुल्य स्थितिसत्ता होती है।
एक-एक अन्तर में हजारों स्थितिखण्ड (घात) होते हैं। जिससे दर्शनमोहनीय की पत्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिसत्ता रहती है। तब ऐसा होने पर (जो होता है उसको आगे कहते हैं)। विशेषार्थ-इसी प्रकार स्थितिबन्ध के लिये भी समझना चाहिए। यानि अपूर्वकरण के प्रथम समय से चरम समय में जैसे संख्यात गुणहोनस्थिति की सत्ता रहती है, उसी प्रकार स्थितिबंध भी अपूर्वकरण के प्रथम समय से चरम समय में संख्यातगुणहीन—संख्यातवें भाग प्रमाण रहती है। __ अपूर्वकरण पूर्ण होने के बाद अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है। प्रवेश के प्रथम समय से ही लेकर अपूर्व गुणश्रोणि, अपूर्व स्थिति और रस का घात तथा अपूर्व स्थितिबन्ध होता है। अपूर्वकरण से इस करण में अनन्तगुण विशुद्ध परिणाम होने से और इस करण में दर्शनमोहनीयत्रिक का सर्वथा नाश होता है, इसलिये अपूर्व स्थितिघात आदि होते हैं।
अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय से लेकर दर्शनमोहनीय की तीनों प्रकृतियों में देशोपशमना, निकाचना और निधत्ति इन तीन करणों में से एक भी करण प्रवर्तित नहीं होता है तथा दर्शनमोहनीय की स्थितिसत्ता स्थितिघातादि से कम होते-होते हजारों स्थितिघात होने के बाद असंज्ञो पंचेन्द्रिय को स्थिति सत्ता के तुल्य होती है। उसके बाद पुनः हजारों स्थितिघात होने के बाद चतुरिन्द्रिय की स्थितिसत्ता के बराबर सत्ता होती है, उसके बाद भी उतने ही स्थितिघात होने के बाद वोन्द्रिय की स्थितिसत्ता के समान सत्ता होती है। तत्पश्चा भी
१ यद्यपि दर्शनमोहनीयत्रिक में से एक का भी बन्ध नहीं होता है, परन्तु
जिन कर्मों का बंध होता है, उनका स्थितिबंध उक्त प्रमाण है ।
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