SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६, ३७ मोहनीय की क्षपणा करने के लिये अधिकारी है-योग्य है और वह अनन्तानुबंधि की विसंयोजना में बताये गये अनुसार तीन करण तथा गुणसंक्रम करके दर्शनमोहनीयत्रिक का सर्वथा नाश करता है । जिसका विस्तार से स्पष्टीकरण इस प्रकार है ५३ दर्शनमोहनीय का क्षय करने के लिये प्रयत्न करता जीव यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणों को करता है । अर्थात् इन करणों में जैसे पूर्व में स्थितिघात आदि जो कुछ भी करना कहा गया है, उसी तरह यहाँ भी यथायोग्य रीति से करता है । प्रथम गुणस्थान में अल्प विशुद्धि थी जिससे अधिक काल में थोड़ा कार्य होता था । दर्शनमोहनीय की क्षपणा चौथे से सातवें गुणस्थान तक होती है। उनकी विशुद्धि अनन्तगुण अधिक होने से अल्प काल में स्थितिघातादि अधिक प्रमाण होते हैं । विशेष यह है कि अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर उवलनासंक्रम युक्त गुणसंक्रम प्रवर्तित होता है । गुणसंक्रम द्वारा मिथ्यात्व तथा मिश्र मोहनीय के दलिकों को सम्यक्त्वमोहनीय में डालता है । जिसमें उन दोनों के दलिकों को सम्यक्त्वमोहनीय रूप करता है और उद्वलनासंक्रम द्वारा स्थिति के खंड करके स्व और पर में प्रक्षिप्त कर नाश करता है । उनमें प्रथमस्थिति खंड बृहद् उसके बाद उत्तरोत्तर छोटे-छोटे स्थितिखंड करता । इस तरह अपूर्वकरण के चरम समय पर्यन्त होता है । यहाँ इतना विशेष है कि अपूर्वकरण के प्रथम समय से लेकर अनुदित मिश्र और मिथ्यात्वमोहनीय में उद्बलना और गुण ये दोनों संक्रम होते हैं, किन्तु सम्यक्त्वमोहनीय में तो मात्र उद्वलनासंक्रम ही होता है। इसका कारण यह है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होता है । उसके दलिकों को तो नीचे उतार कर उदयसमय से लेकर गुणश्र ेणि क्रम से स्थापित करता है । इस प्रकार उद्वलनानुविद्ध गुणसंक्रम द्वारा मिथ्यात्व और मिश्र की स्थिति कम होने से अपूर्वकरण के प्रथम समय में उन दोनों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy