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________________ पंचसंग्रह : ६ अब दर्शनमोहनीय की क्षपणा की विधि का निरूपण करते हैं। दर्शनमोहक्षपणानिरूपण दसणखवणस्सरिहो जिणकालीओ पुमट्ठवासुवरि । अणणासकमा करणाइ करिय गुणसंकमं तहय ॥३६॥ अप्पुव्वकरणसमगं गुणउव्वलणं करेइ दोण्हपि । तक्करणाइं जं तं ठिइसंतं संखभागन्ते ॥३७॥ शब्दार्थ-दसणखवणस्सरिहो-दर्शनमोहनीय की क्षपणा के योग्य, जिणकालीओ-जिनकालिक, पुमट्ठवासुरि-आठ वर्ष से अधिक की आयु वाला पुरुष, अणणासकमा-अनन्तानुबंधि के नाश (विसंयोजना) में कह गये क्रम से, करणाइ-करणों को, करिय-करके, गुणसंकम-गुणसंक्रम, तहय—उसी प्रकार। ___ अप्पुवकरणसमगं-अपूर्वकरण के साथ, गुणउन्वलणं-गुण और उद्वलना संक्रम, करेइ-करता है, दोण्हंपि--दोनों का भी, तक्करणाइं-उस अपूर्वकरण के आदि में, जं-जो, तं—उस, ठिइसंतं-स्थितिसत्ता को, संखभागन्ते--अंत में संख्यातवें भाग । गाथार्थ-आठ वर्ष से अधिक की आयु वाला जिनकालिक पुरुष दर्शनमोहनीय की क्षपणा के योग्य है। वह अनन्तानुबंधि की विसंयोजना में कहे गये तीन करण के क्रम से करणों को करके तथा उसी प्रकार गुणसंक्रम करके अपूर्वकरण के साथ ही दोनों (मिश्र और मिथ्यात्व मोहनीय) का गुणसंक्रम और उद्वलनासंक्रम करता है, जिससे अपूर्वकरण की आदि में वर्तमान स्थितिसत्ता को अंत में संख्यातवें भाग करता है। विशषार्थ-जिस काल में तीर्थंकर विराजमान हैं, उस काल में उत्पन्न ऐसा जिनकालिक आठ वर्ष से अधिक की आयु वाला प्रथम संहननी मनुष्य (पुरुष) दर्शनमोहनीय-मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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