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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५
जीव समान परिणाम वाले होते हैं, उस समय से अनिवृत्तिकरण की शुरुआत होती है। इस करण में प्रत्येक समय एक साथ चढ़े हुए प्रत्येक जीव के अध्यवसाय समान होते हैं, मात्र पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर अनन्तगुण विशुद्ध होते हैं। जिससे इस करण के जितने समय, उतने ही विशुद्धि के स्थान हैं । अपूर्वकरण की तरह यहाँ भी पूर्वोक्त स्थितिघात आदि पांचों पदों को एक ही साथ प्रारम्भ करता है और अनिवृत्तिकरण के संख्यातभाग जायें और एक संख्यातवां भाग शेष रहे तब अनन्तानुबंधि का अन्तरकरण करता है । यहाँ अनन्तानुबंधि का उदय नहीं होने से नीचे एक आवलिका को छोड़कर ऊपर के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकरण के दलिकों को बध्यमान पर-प्रकृति में संक्रमित करता है और अभिनव स्थितिबंध या स्थितिघात करते जितना समय जाता है उतने समय में खाली करता है। प्रथमस्थिति के आवलिकागत दलिकों को स्तिबुकसंक्रम द्वारा वेद्यमान परप्रकृति में संक्रमित कर समाप्त-नि:शेष करता है। ___जिस समय अन्तरकरणक्रिया प्रारम्भ होती है, उसके दूसरे समय से द्वितीय स्थितिगत अनन्तानुबंधि के दलिक को उपशमित करना प्रारम्भ करता है। प्रथम समय में स्तोक, दूसरे समय में असंख्यातगुण, उससे तीसरे समय में असंख्यातगुण उपशमित करता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल में सम्पूर्णतया उपशमित करता है। उपशमित करता है यानि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उदय, संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, निद्धत्ति, निकाचना और उदीरणा के अयोग्य करता है। उपशांत हुए दलिकों में अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उक्त कोई करण नहीं लगता है, उसी प्रकार प्रदेश या रस से उदय भी नहीं होता है।
इस प्रकार जो आचार्य अनन्तानुबंधि की उपशमना मानते हैं उनके मतानुसार उसकी उपशमना की यह विधि है।1
१ अनन्तानुबंधिनी की यह विधि षडशीति वृत्ति से यहाँ उद्धृत की है।
-सम्पादक www.jainelibrary.org
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