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उपसमनादि करणत्रय-रूपणा अधिकार : गाथा ३५ रस को अनन्तगुण बढ़ाता है। स्थितिबंध भी पूर्ण हो तब जैसे-जैसे पूर्ण होता जाता है वैसे-वैसे अन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग हीन-हीन करता है। इस प्रकार करण प्रारम्भ करने के पूर्व भी अन्तमुहूर्त पर्यन्त निर्मल परिणाम वाला रहता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण तीन करण करता है-१ यथाप्रवृत्तकरण, २ अपूर्वकरण, ३ अनिवृत्तिकरण तथा चौथा उपशान्ताद्धा। ___ उसमें यथाप्रवृत्तकरण में प्रवेश करता जीव पूर्व-पूर्व समय से अनन्तगुण प्रवर्धमान परिणामों से प्रवेश करता है, किन्तु तद्योग्य विशुद्धि के अभाव में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रीणि या गुणसंक्रम इनमें से एक को भी नहीं करता है। उस अन्तमुहूर्त प्रमाण यथाप्रवृत्तकरण के काल में प्रत्येक समय में त्रिकालवर्ती अनेक जीवों की अपेक्षा असंख्य लोकाकाशप्रदेशप्रमाण विशुद्धि के स्थान होते हैं और प्रत्येक समय के वे विशुद्धिस्थान षट्स्थानपतित हैं तथा प्रथम समय में जो विशुद्धिस्थान हैं, उनसे दूसरे समय में अधिक होते हैं, तीसरे समय में उनसे अधिक, इस तरह पूर्व-पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय पर्यन्त अधिक-अधिक होते हैं । तथा__ यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जघन्यविशुद्धि अल्प, उससे द्वितीय समय में जघन्यविशुद्धि अनन्तगुण, उससे तृतीय समय में जघन्यविशुद्धि अनन्तगुण, इस तरह यथाप्रवृत्तकरण के संख्यातवें भाग पर्यन्त जानना चाहिये । उससे यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण, उससे संख्यातवें भाग के बाद के समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण, उससे द्वितीय समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण, उससे संख्यातवें भाग के बाद के दूसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण, उससे तीसरे समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण, १ कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह के कर्ता पल्योपम के संख्यातवें भागहीन
मानते हैं।
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