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________________ पंचसंग्रह : विशेषार्थ - ऊपर के दो करण - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण - में अनन्तानुबंधि क्रोध, मान, माया और लोभ के दलिकों का उद्वलनासंक्रमानुविद्ध गुणसंक्रम द्वारा सर्वथा नाश करता है, यानि बंधती हुई शेष कषाय रूप कर देता है । ऊपर के गुणस्थानों में जिस कर्म का सर्वथा नाश करना हो, उनमें के बहुतसों में उवलनासंक्रम और गुणसंक्रम दोनों होते हैं, जिससे अन्तर्मुहूर्त मात्र काल में उनका सर्वथा नाश होता है और यहाँ अनन्तानुबंधि का सर्वथा नाश करता है जिससे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में उवलनायुक्त गुणसंक्रम द्वारा मात्र अन्तर्मुहूर्त में ही उसका सर्वथा नाश करता है और मात्र एक उदयावलिका अवशिष्ट रहती है। इसका कारण यह है कि उसमें कोई करण नहीं लगता है। शेष रही वह आवलिका स्तिबुकसंक्रम द्वारा वेद्यमान स्वजातीय प्रकृति में संक्रमित होकर दूर होती है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त के बाद अनिवृत्तिकरण के अन्त में शेष कर्मों का भी स्थितिघात और गुणश्रेणि नहीं होती है, परन्तु मोहनीय की चौबीस प्रकृतियों की सत्ता वाला होता हुआ स्वभावस्थ ही रहता है । . ४६ इस प्रकार से अनन्तानुबंधि की विसंयोजना का स्वरूप जानना चाहिये । किन्तु जो आचार्य उपशमश्रणि करते हुए अनन्तानुबधि की उपशमना मानते हैं, उनके मतानुसार अनन्तानुबंधि की उपशमना विधि इस प्रकार है अनन्तानुबंधि उपशमना : अन्य मतान्तर अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में किसी भी एक गुणस्थान में वर्तमान जीव अनन्तानुबंध की उपशमना का प्रयत्न करता है । वह मन, वचन और काय इन तीन योगों में से किसी भी एक योगयुक्त होता है। तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या में से कोई भी एक शुभ लेश्या वाला, साकारोपयोग में उपयुक्त, अन्तः sistant सागरोपम स्थिति की सत्ता वाला भव्य जीव होता है तथा वह परावर्तमान पुण्यप्रकृतियों का बंधक होता है एवं प्रति समय अशुभ प्रकृतियों के रस को अनन्तगुण हीन करता है तथा शुभ प्रकृतियों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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