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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३५ ४५ गाथार्थ-पूर्वोक्त सम्यक्त्वोत्पाद की विधि से चारों गति के पर्याप्त (क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते हैं परन्तु (तीसरे करण में) प्रथमस्थिति नहीं करते हैं । विशेषार्थ-यहाँ अनन्तानुबंधी के विसंयोजक का स्वरूप बताया है कि उपशमसम्यक्त्वप्राप्ति के समय जो तीन करण कहे हैं, उन्हीं तीन करणों के क्रम से चारों गति के संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव चौथे से सातवें गुणस्थान तक में वर्तमान-उनमें से चौथे गुणस्थान में वर्तमान चारों गति के जीव, देशविरति तिर्यंच और मनुष्य तथा सर्वविरति मनुष्य ही अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते हैं। किन्तु उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करते अनिवृत्तिकरण में जो अन्तरकरण होता है, वह यहाँ नहीं होता है और उसके नहीं होने से प्रथमस्थिति भी नहीं होती है। क्योंकि अन्तरकरण के नीचे की छोटी स्थिति प्रथम स्थिति और ऊपर की द्वितीय-बड़ी स्थिति कहलाती है। यहाँ जब अन्तरकरण ही नहीं होता है, परन्तु उद्वलनानुविद्ध गुणसंक्रम द्वारा सर्वथा नाश ही होता है तो फिर प्रथम-द्वितीय स्थिति कैसे हो सकती है ? अर्थात् अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करते हुए अनिवृत्तिकरण में प्रथमस्थिति या अन्तरकरण नहीं होता है। जिसके सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है उवरिमगे करणदुगे दलियं गुणसंकमेण तेसिं तु । नासेइ तओपच्छा अन्तमुहत्ता सभाबत्थो ॥३५॥ शब्दार्थ-उवरिमगे-ऊपर के, करणदुगे-दो करणों में, दलियंदलिक, गुणसंकमेण-गुणसंक्रम द्वारा, तेसिंतु-उनका (अनन्तानुबंधि के दलिकों का) नासेइ-नाश करता है, तओपच्छा- उसके बाद, अन्तमुहुत्ताअन्तर्मुहूर्त, सभावत्थो----स्वभावस्थ । __गाथार्थ-ऊपर के दो करण में गुणसंक्रमण द्वारा उनका (अनन्तानुबंधि के दलिकों का) नाश करता है और अन्तमुहूर्त बाद स्वभावस्थ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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