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________________ पंचसंग्रह : ६ श्र ेणि में - ऊपर से दलिकों को उतार कर रचना में भी फेरफार होता है । यदि हीनपरिणामी - पूर्व- पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय-समय में मन्द परिणामी आत्मा होती जाये तो गुणश्रेणि भी असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यातगुणहीन या असख्यातगुणहीन होती है । अर्थात् ऊपर से इतने इतने कम उतार कर नीचे हीन-हीन स्थापित करती है । ४४ यदि पूर्व - पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में परिणाम प्रवर्धमान होते जायें तो परिणामानुसार गुणश्रेणि भी पूर्वोक्त प्रकार से बढ़ती है और पूर्व समय में जैसे परिणाम थे, वैसे ही उत्तर समय में भी परिणाम रहें तो गुणश्रेणि भी उतनी ही होती है । यानि पूर्वसमय में जितने दलिक उतारे थे और जिस क्रम से स्थापित किये थे उतने ही उत्तर समय में उतार कर स्थापित करती है । गुणश्रेणि के क्रम से होने वाली दलरचना अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थानों में होती है और देशविरति तथा सर्वविरति गुणस्थान जब तक रहें, तब तक वह भी समय-समय होती रहती है । इस प्रकार से देशविरति और सर्वविरति की प्राप्ति का क्रम जानना चाहिये | अब अनन्तानुबंधी की विसंयोजना का स्वरूप निर्देश करते हैं । अनन्तानुबंधि-विसंयोजना सम्मुप्पाणविहिणा चउगइया सम्मदिठिपज्जत्ता । संजोयणा विजोयन्ति न उण पढमट्ठिति करेंति ॥३४॥ शब्दार्थ- सम्मुप्पायणविहिणा – सम्यक्त्वोत्पाद की विधि से, चउगइया -चारों गति के जीव, सम्मदिट्ठि सम्यग्दृष्टि, पज्जन्त्ता - पर्याप्त, संजोयणा -- संयोजना- अनन्तानुबंधी की, विजयन्ति -- विसंयोजना करते हैं, ननहीं, उण -- किन्तु, पढमति - प्रथम स्थिति, करेंति - करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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