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________________ उपशमनादि करणत्रय प्ररूपणो अधिकार : गाया ३३ जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल और उत्कृष्ट से बहुत काल में पूर्ण प्रतिपन्न देशविरति अथवा सर्गविरति को उक्त प्रकार से-दो करण करके ही प्राप्त करती है । इसका कारण यह है कि आभोग ( उपयोग ) पूर्वक गिरा हुआ जीव क्लिष्ट परिणामी होता है, जिससे वह करण किये बिना चढ़ नहीं सकता है, किन्तु कोई इसी प्रकार के कर्म के उदय से अनाभोग के कारण गिरा हुआ हो तो वह तथाप्रकार के क्लिष्ट परिणाम नहीं होने से करण किये बिना ही चढ़ जाता है । तथा ४३ परिणामपच्चएणं चउव्विहं हाइ वडदुई वावि । परिणामवड्ढयाए गुणसेढि तत्तियं रयइ ||३३|| शब्दार्थ- परिणामपच्चए - परिणाम के निमित्त से, चउब्विहं चार प्रकार से, हाइ घटती है, वड्ढई बढ़ती है, वावि -- अथवा, परिणामवड्ढयाए – परिणाम के अवस्थित रहने पर, गुणसेढि गुणश्रेणि, तत्तियंउतनी ही, रयइ- - रचता है । गाथार्थ - परिणाम के निमित्त से गुणश्रेणि चार प्रकार से घटती है अथवा बढ़ती है, परिणाम के अवस्थित रहने पर उतनी ही रचता है | विशेषार्थ - परिणाम रूप कारण द्वारा गुणश्रेणि बढ़ती है और घटती है । यानि पूर्व - पूर्व समय से उत्तरोत्तर समय में यदि परिणाम प्रवर्धमान हों तो ऊपर के स्थानों में से अनुक्रम से अधिक अधिक दलिक लेकर अधिक अधिक स्थापित करता है । स्थिर परिणामी हो तो उतने लेकर उतने ही स्थापित करता है और हीयमान परिणामी हो तो ऊपर से अल्प दलिक लेता है और अल्प स्थापित करता है । देशविरति और सर्वविरति प्राप्त होने के बाद अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त तो आत्मा अवश्य प्रवर्धमान परिणाम वाली ही होती है किन्तु उसके बाद का नियम नहीं है । कोई हीनपरिणामी होती है, कोई अवस्थितपरिणामी और प्रवर्धमानपरिणामी भी होती है । इसी कारण गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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