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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६, ३० ३७ चारित्रमोहनीयोपशमना : देशविरति-सर्वविरति लाभ स्वामित्व वेयगसम्मद्दिट्ठि सोही अद्धाए अजयमांईया । करणदुगेण उवसमं चरित्तमोहस्स चेट्ठति ॥२६॥ शब्दार्थ-वेयगसम्मद्दिट्ठि-वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि, सोहीविशुद्धि, अद्धाए-काल में वर्तमान, अजयमाईया-अविरतसम्यग्दृष्टि, करणदुगेण-दो करणों द्वारा, उवसम-उपशम, चरित्तमोहस्स-चारित्रमोहनीय का, चेटति-प्रयत्न करते हैं। गाथार्थ--विशुद्धि काल में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान वाले वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यग्दृष्टि दो करण के द्वारा चारित्रमोहनीय के उपशम का प्रयत्न करते हैं। विशेषार्थ-गाथा में चारित्रमोहनीय के उपशम करने वाले अधिकारी-स्वामी का निर्देश किया है जिसने संक्लिष्ट परिणाम का त्याग किया है और जो विशुद्ध परिणामों में वर्तमान है, ऐसा वेदकसम्यग्दृष्टि-क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टि अविरत, देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में वर्तमान है, वह दो करण-यथाप्रवृत्त तथा अपूर्वकरण द्वारा चारित्रमोहनीय को उपशमित करने के लिए यथायोग्य रीति से प्रयत्न करता है और तीसरे-अनिवृत्तिकरण से तो साक्षात् उपशांत करता ही है, इसीलिये यहाँ आदि के दो करणों द्वारा प्रयत्न करता है, यह संकेत किया है। __ अब इसी प्रसंग में अविरतसम्यग्दृष्टि आदि का स्वरूप बतलाते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि आदि का स्वरूप जाणणगहणणुपालणविरओ विरई अविरओण्णेसु । आईमकरणदुगेणं पडिवज्जइ दोण्हमण्णयरं ॥३०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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