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________________ पंचसंग्रह : ६ शब्दार्थ--सम्मत्तेणं समग-सम्यक्त्व के साथ, सव्वं-सर्वविरति, देसं-देशविरति, च-और, कोइ-कोई, पडिवज्जे-प्राप्त करता है, उवसंतदसणी-उपशमसम्यक्त्वी ; सो-वह, अंतरकरणो-अन्तरकरण में, ठिओ-स्थित है, जाव--तक, पर्यन्त । गाथार्थ-सम्यक्त्व के साथ कोई देशविरति और सर्वविरति प्राप्त करता है। जब तक अन्तरकरण में स्थित है, तब तक वह उपशमसम्यक्त्वी है। विशेषार्थ-उपशमसम्यक्त्व के साथ ही कोई-कोई देशविरतित्व और सर्वविरतित्व को प्राप्त होते हैं । अर्थात् वे पहले से सीधे पांचवें और छठे गुणस्थान में जाते हैं किन्तु सासादन भाव को प्राप्त नहीं करते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि तब तक जानना चाहिये जब तक अन्तरकरणअवस्था रहती है और अन्तरकरण-अवस्था तब तक रहती है, जब तक अनन्तानुबंधिकषाय का उदय नहीं होता है। अध्यवसायों की निर्मलता के अनेक भेद हैं। कोई तीन करण करके पहले से चौथे गुणस्थान में ही जाता है। कोई तीव्रविशुद्धि वाला मिथ्यात्व को उपशमित करने के साथ अप्रत्याख्यानावरणकषाय का भी क्षयोपशम कर पहले से पांचवें गुणस्थान को और अतितीव्र विश द्धपरिणाम वाला कोई दूसरी और तीसरी इस तरह दोनों कषायों का क्षयोपशम कर पहले गुणस्थान से सर्वविरति भाव को भी प्राप्त करता है। उस-उस गुण का अनुसरण करके क्रम से प्रवर्धमान विशुद्धि वाली आत्मायें पहले गुणस्थान से चौथे, पांचवें, छठे या सातवें गुणस्थान में जा सकती हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है। ___ इस प्रकार से प्रथमसम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब पूर्वोक्त क्रमानुसार चारित्रमोहनीय की उपशमना का विचार भी विस्तार से करना चाहिये । अतएव चारित्रमोहनीय की उपशमना का निरूपण प्रारंभ करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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