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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७, २८
गोपुच्छाकार होती है । जब कुछ अधिक काल पूर्ण हो और एक आवलिका काल शेष रहे तब अध्यवसाय के अनुसार तोनों पुंजों में से किसी एक पुंज का उदय होता है । उस समय शुभ ( उत्कृष्ट) परिणाम हों तो सम्यक्त्वपु ंज का, मध्यम परिणाम हों तो मिश्रपुरंज का और जघन्य परिणाम हों तो मिथ्यात्वपुंज का उदय होता है । यदि सम्यक्त्वपुं ज का उदय हो तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । मिश्रपुरंज का उदय होने पर तीसरा और मिथ्यात्वपुज का उदय होने पर पहला गुणस्थान प्राप्त होता है ! तथा
CLAŽAN
छावलियासे साए असुभ परिणामओ कोइ जाइ
उवसमअद्धाइ जाव इगसमयं ।
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इह सासणत्तंपि ॥ २७ ॥
शब्दार्थ - छावलियासेसाए - छह आवलिका काल शेष रहने पर, उदसमअद्वाइ- - उपशमसम्यक्त्व अद्धा में, जाव -- यावत्, इगसमयं - एक समय, असुभ परिणामओ - अशुभ परिणाम होने से, कोई-कोई, जाइ — जाता है, इह - यहाँ, सासणत पि- सासादनत्व में भो ।
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गाथार्थ - उपशमसम्यक्त्व - अद्धा (काल) में, एक समय यावत् छह आवलिका काल शेष रहने पर अशुभ परिणाम होने से कोई सासादनत्व में भी जाता है !
विशेषार्थ - उपशमसम्यक्त्व - अंतरकरण - का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका जितना काल शेष रहे, तब किसी को अनन्तानुबंधिकषाय का उदय होता है और उसका उदय होने से दूसरा सासादनगुणस्थान प्राप्त करता है और उसके बाद वहाँ से गिरकर वह अवश्य ही मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । तथा
सम्मत्तेणं समगं सव्वं देतं च कोइ पडिवज्जे ।
उवसंतदंसणी सो अंतर करणे ठिओ जाव ||२८||
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