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पंचसंग्रह :
विशेषार्थ - जब तक मिथ्यात्वमोहनीय का गुणसंक्रम होता है, तब तक आयु के बिना शेष सात कर्मों में स्थितिघात, रसघात और गुणश्र ेणि प्रवर्तित होती है। किन्तु जब गुणसंक्रम होना बंद होता है तब स्थितिघातादि भी बंद हो जाते हैं तथा जब तक मिथ्यात्वमोहनीय की प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष रही हुई होती नहीं है. तब तक उसका स्थितिघात, रसघात होता है और एक आवलिका बाकी रहे तब वे दोनों बंद हो जाते हैं तथा मिथ्यात्वमोहनीय की प्रथम स्थिति की दो आवलिका जब तक बाकी रही हुई होती नहीं है, तब तक गुणश्रेणि भी होती है और दो आवलिका शेष रहे तब उसमें गुणश्रण होना बंद हो जाता है । तथा
उवसंतद्धाअंत बिइए ओकड्ढियस्स दलियस्स । अज्झवसाणविसेसा एकस्सुदओ भवे तिण्हं ||२६||
शब्दार्थ - उवसंतद्धाअंते - उपशान्ताद्धा के अंत में, बिइए - विधि द्वारा, ओक दियस्स - अपकर्षित, दलियस्स - दलिकों का अज्झवसाण विसेसा - अध्यवसाय विशेष से, एकस्सुदओ - एक का उदय, भवे― होता है, तिन्हं - तीन प्रकारों में से ।
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गाथार्थ - उपशान्ताद्धा के अंत में विधि द्वारा अपकर्षित किये गये तीन प्रकार के दलिकों में से अध्यवसाय विशेष से एक का उदय होता है ।
विशेषार्थ–उपशमसम्यक्त्व के अन्तरकरण के अंतर्मुहूर्त काल का कुछ अधिक एक आवलिका काल शेष रहे तब उस समयाधिक काल पर्यन्त दूसरी स्थिति में रहे सम्यक्त्व, मिश्र और मिथ्यात्व मोहनीय के दलिकों को अध्यवसाय द्वारा आकृष्ट कर अंतरकरण की अंतिम आवलिका में स्थापित करता है । स्थापित करने का क्रम इस प्रकार हैप्रथम समय में बहुत स्थापित करता है । द्वितीय समय में उससे स्तोक, तृतीय समय में उससे स्तोक इस क्रम से आवलिका के चरम समय पर्यन्त स्थापित करता है । स्थापित किये गये उन दलिकों की रचना
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