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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५
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वर्तमान जीव (आत्मा) उपशमसम्यक्त्वरूप प्रशस्त गुणयुक्त है और प्रशस्त गुणयुक्त आत्मा संक्रम करती है । इसलिये अंतरकरण में रही आत्मा के गुणसंक्रम' प्रवर्तित होता है ।
प्रश्न – मिथ्यात्वमोहनीय का उपशम करते अपूर्वकरण में गुणसंक्रम क्यों नहीं होता है ?
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उत्तर - उस समय मिथ्यात्वमोहनीय का बंध होता है । मिथ्यात्वमोहनीय का जब तक उदय हो, तब तक बंध भी होता है । अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त उदय है, अतः बंध भी वहां तक है । बंधती हुई प्रकृतियों का गुणसंक्रम नहीं होता है और अंतरकरण में उसका उदय नहीं है, इसलिये बंध भी नहीं है। जिससे अंतरकरण में मिथ्यात्वमोहनीय का गुणसंक्रम होता है, यह कहा है । तथा
गुणसंकमेणसमगं तिण्णि थक्कंत आउवज्जाणं । मिच्छत्तस्स उ इगिदुगआवलिसेसाए पढमाए ||२५|| शब्दार्थ --- गुणसंक मेणसमगं गुणसंक्रम के साथ, - तिष्णि- तीनों, थक्कंत - रुक जाते हैं, आउवज्जाणं -- आयुर्वजित, मिच्छत्तस्स --- मिथ्यात्व की, -और, इगिदुगआवलिसेसाए - एक और दो आवलिका शेष रहने पर, पढमाए - प्रथम स्थिति में ।
गाथार्थ - गुणसंक्रम के साथ ही आयुवर्जित शेष कर्मों में तीनों (स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि) और मिथ्यात्व की भी प्रथम स्थिति में एक और दो आवलिका शेष रहने पर पूर्वोक्त तीनों रुक जाते हैं।
उ
१ अपूर्वकरण से प्रारम्भ कर अवध्यमान अशुभप्रकृतियों के दलिकों को पूर्वपूर्व समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय में असंख्यात असंख्यात गुणाकार रूप से स्वजातीय बंधती प्रकृति रूप करने को गुणसंक्रम कहते हैं-- गुणसंकमो अबज्झन्तिगाण असुभाणपुञ्वकरणादी । गुणसंक्रम का विशेष लक्षण संक्रमकरण गाथा ७७ में देखिए ।
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