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________________ ३८ पंचसंग्रह : ६ शब्दार्थ-जाणणगहण गुपाल गविरओ-ज्ञान, ग्रहण और अनुपालन द्वारा विरत, विरई-विरत है, अविरओण्णेसु~अन्य भंगों में वर्तमान अविरत है, आइमकरण दुगेणं-आदि के दो करणों द्वारा, पडिवज्जइ--प्रोप्त करता है, दोण्हमण्णयरं-दोनों में से अन्यतर एक को। __ गाथार्थ-ज्ञान, ग्रहण और अनुपालन द्वारा जो विरत है वह विरत है, अन्य भंगों द्वारा अविरत है। आदि के दो करणों द्वारा दोनों में से अन्यतर (देशविरति या सर्वविरति)-किसी एक को प्राप्त करता है। विशेषार्थ-विरति-व्रत का यथार्थ ज्ञान, उसका विधिपूर्वक ग्रहण और अनुपालन करने से विरत होता है अर्थात् विधिपूर्वक आत्मसाक्षी और गुरुसाक्षी से व्रतों का उच्चारण करने रूप ग्रहण, ग्रहण किये व्रतों को बराबर पालन करने रूप अनुपालन तथा व्रतों का सम्यक् प्रकार से यथार्थ ज्ञान होने पर व्रती या विरत होता है। उसमें जिसने त्रिविध -मन-वचन-काया द्वारा उनके पापव्यापार से विराम ले लिया है, वह सर्वविरति कहलाता है और जिसने देश से-आंशिक विराम लियात्याग किया है उसे देशविरति कहते हैं तथा ज्ञान-ग्रहण-अनुपालन रूप भंग के सिवाय अन्य भंग में जो वर्तमान है, वह अविरत है । जिसका विस्तृत स्पष्टीकरण इस प्रकार है ज्ञान, ग्रहण और अनुपालन रूप तीन पद के निम्नलिखित आठ भंग होते हैं १ अज्ञान-अग्रहण-अपालन, २ अज्ञान-अग्रहण-पालन, ३ अज्ञान-ग्रहण-अपालन, ४ अज्ञान-ग्रहण-पालन, ५ ज्ञान-अग्रहण-अपालन, ६ ज्ञान-अग्रहण-पालन, ७ ज्ञान-ग्रहण-अपालन, ८ ज्ञान-ग्रहण-पालन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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