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पंचसंग्रह : ६
शब्दार्थ - अंतरकरणस्स - अंतरकरण की. विहि—- विधि, घेत्तु-घेतग्रहण कर करके, ठिईउमज्झाओ-स्थिति के मध्य में से, दलियं - दलिकों को, पढमठिईए - प्रथम स्थिति में, विच्छुभई - प्रक्षिप्त करता है, तहा — तथा, उवरिमाए - ऊपर की (द्वितीय) स्थिति में ।
गाथार्थ - अंतरकरण की विधि यह है कि ( अन्तरकरण की ) स्थिति के मध्य में से दलिकों को ग्रहण करके प्रथम स्थिति में और ऊपर की (द्वितीय) स्थिति में प्रक्षिप्त करता है।
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विशेषार्थ - अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकरण की स्थिति में से दलिकों को ग्रहण करके कुछ को प्रथम स्थिति में और कुछ को द्वितीय स्थिति में प्रक्षिप्त करता है । अर्थात् कितने ही दलिकों को प्रथम स्थिति के कर्माणुओं के साथ भोगने योग्य और कितने हो दलिकों को द्वितीय स्थिति के कर्माणुओं के साथ भोगे जा सकने योग्य करता है । इस प्रकार से वहां तक जानना चाहिये कि अन्तरकरण के समस्त दलिकों का नाश हो और भूमिका शुद्ध हो । समस्त दलिकों का क्षय अन्तर्मुहूर्त काल में होता है और इस अन्तर्मुहूर्त का प्रमाण स्थितिघात के काल जितना है । तथा
इगदुगआवलिसेसाइ णत्थि पढमा उदीरणागालो । पढमठिईए उदीरण बीयाओ एइ आगाला ||२०|| आवलिका शेष रहे तब,
शब्दार्थ -- इगदुगआवलिसेसाइ- एक-दो णत्थि -- नहीं होते हैं, पढमा -- प्रथम स्थिति में, उदीरणागालो - उदीरणा और आगाल, पढमठिईए – प्रथमस्थिति में से, उदीरणा - उदीरणा, बोयाओद्वितीय स्थिति में से, एइ-आते हैं, आगाला- -आगाल ।
गाथार्थ - प्रथम स्थिति की जब एक और दो आवलिका शेष रहे तब अनुक्रम से उदीरणा और आगाल नहीं होते हैं । प्रथमस्थिति में से जो दलिक उदीरणा प्रयोग से उदय में उदीरणा और द्वितीय स्थिति में से जो उदय में
आते हैं उसे आते हैं उसे
आगाल कहते हैं ।
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