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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १६
गाथार्थ - दोनों को अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है तथा (अंतरकरणक्रियाकाल) बंधकाद्धा तुल्य है । अंतरकाल के साथ गुणश्रेणि के संख्यातवें भाग को भी उत्कीर्ण करता है।
विशेषार्थ-प्रथमस्थिति और अन्तरकरण ये दोनों अन्तर्मुहूर्त प्रमाण हैं और दोनों साथ ही होते हैं । मात्र प्रथमस्थिति के अन्तर्मुहूर्त से अन्तरकरण का अन्तर्मुहूर्त कुछ बड़ा है तथा अन्तरकरणक्रियाकाल अपूर्वस्थितिबंध के जितना है। अर्थात् जिस समय अपूर्व स्थितिबंध प्रारम्भ होता है उसी समय अंतरकरण- अंतर डालने की क्रियाशुद्ध भूमि करने की क्रिया-अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थानों के दलिकों को हटाकर शुद्धभूमि करने की क्रिया प्रारम्भ होती है और अपूर्वस्थितिबंध पूर्ण होने के साथ ही अन्तरकरणक्रिया भी पूर्ण होती है और उतनी भूमि शुद्ध होती है। इसीलिये यह कहा है कि अन्तरकरण अभिनव स्थितिबंध के काल प्रमाण काल में करता है । अन्तरकरण के प्रथम समय में ही मिथ्यात्व का अन्य स्थितिबंध प्रारम्भ करता है, वह स्थितिबंध और अन्तरकरण एक साथ ही पूर्ण होते हैं तथा गुणश्रेणि के जो संख्यात भाग प्रथम और द्वितीय स्थिति के आश्रय से रहे हुए हैं, उनका एक संख्यातवां भाग अन्तरकरण के दलिकों के साथ ही नाश करता है और पूर्व में जो यह कहा गया है कि गुणश्रोणि द्वारा जितने स्थानों में दल रचना होती है वे स्थान अपूर्व करण और अनिवृत्तिकरण इन दोनों के समुदित काल से अधिक हैं, यानि जब अन्तरकरण क्रिया प्रारम्भ करता है तब भी अन्तरकरण में और उससे ऊपर की द्वितीय स्थिति में दल रचना होती है । इसी कारण अन्तरकरण के साथ गुणश्रेणि द्वारा स्थापित किये गये दलिक भी उत्कीर्ण किये जाते हैं ।
अब अन्तरकरण की विधि का निर्देश करते हैं। अन्तर करण विधि __ अंतरकरणस्स विहि घेत्तं घेत्तं ठिईउ मज्झाओ ।
दलियं पढमठिईए विच्छभई तहा उवरिमाए ॥१६॥
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