________________
पंचसंग्रह : ६ __ गाथार्थ-इसी प्रकार से (अपूर्वकरण की तरह) अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिघात आदि चारों ही होते हैं और अनिवृत्तिकरण का संख्यातवां भाग शेष रहने पर प्रथम स्थिति और अंतरकरण होता है।
विशेषार्थ-अपूर्वकरण के अनुरूप ही अनिवृत्तिकरण में भी स्थितिघात आदि चारों पदार्थ प्रवर्तित होते हैं। इस तरह स्थितिघात आदि होते-होते अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीत जायें और एक संख्यातवां भाग शेष रहता है तब अनिवृत्तिकरण का जितना काल शेष रहता है, उतने ही काल में भोगी जा सके उतनी मिथ्यात्व की स्थिति को रखकर ऊपर की स्थिति का अंतरकरण होता है। ___अंतरकरण यानि अन्तमुहूर्त में भोगे जायें उतने स्थानों के दलिकों को वहाँ से हटाकर शुद्ध-दलिकरहित-भूमि का बनाना । यद्यपि शुद्धभूमि का नाम ही अंतरकरण है परन्तु वहाँ से दलिक हटे बिना शुद्धभूमि होती नहीं, इसलिये कारण में कार्य का आरोप करके अन्तरकरणक्रियाकाल को भी अंतरकरण कहा जाता है। ___ यह अंतरकरण-मिथ्यात्व के दलिक विहीन शुद्ध भूमि-प्रथम स्थिति के अन्तर्मुहूर्त से कुछ अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। अर्थात् प्रथमस्थिति का जितना काल है, उससे अंतरकरण-शुद्धभूमिउपशम सम्यक्त्व का काल कुछ अधिक है। तथा
अंतमुहुत्तियमेत्ताई दोवि निम्मवइ बंधगद्धाए। गुणसेढिसंखभागं अंतरकरणेण उक्किरइ ॥१८॥
शब्दार्थ-अंतमुहुत्तियमेत्ताई-अन्तर्मुहूर्त प्रमाण, दोवि दोनों को, निम्मवइ --बनाता है, बंधगद्धाए-बंधकाद्धा, गुणसेढिसंखभाग-गुणधे णि के संख्यातवें भाग को, अंतरकरणेण-अन्तरकरण के साथ, उक्किरइ-उत्कीर्ण करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org