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________________ २६ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २१ विशेषार्थ-प्रथमस्थिति में वर्तमान आत्मा उदयावलिका से ऊपर के प्रथम स्थिति के दलिकों को उदीरणाप्रयोग से खींचकर जो उदयावलिका में प्रक्षिप्त करती है, उसे उदीरणा कहते हैं और दूसरी स्थिति में से उदीरणाप्रयोग से खींचकर उदयावलिकागत दलिकों के साथ भोगे जायें--वैसे करने को उदयावलिका में रखने को आगाल हैं। अंतरकरणक्रिया शुरू होने के बाद प्रथम स्थिति में से जो दलिक खींचे जाते है वह उदोरणा और द्वितीय स्थिति में से जो दलिक खींचे जाते हैं वह आगाल है। इस प्रकार विशेष बोध कराने के लिये पूर्वाचार्यों ने आगाल यह उदीरणा का दूसरा नाम कहा है। उदय और उदीरणा द्वारा प्रथम स्थिति अनुभव करती आत्मा वहां तक जाती है यावत् प्रथम स्थिति की दो आवलिका शेष रहे तब यहां से आगाल बंद हो जाता है, मात्र उदीरणा ही प्रवर्तित होती है और वह भी प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष न रहे, वहाँ तक ही होती है। प्रथमस्थिति की एक आवलिका शेष रहने पर उदीरणा भी बंद हो जाती है। शेष रही उस अंतिम आवलिका को उदय द्वारा ही भोग लेती है । तथा आवलिमेत्तं उदएण वेइउं ठाइ उवसमद्धाए । उवसमियं तत्थ भवे सम्मत्तं मोक्खबीयं जं ॥२१॥ शब्दार्थ--आवलिमेत्तं-आवलिका मात्र दलिक को, उदएण--उदय से, वेइउ-वेदन करके, ठाइ-स्थित होता है, उवसमद्धाए-~-उपशम-अद्धा में, उवसमियं-औपशमिक, तत्थ-वहां, भवे-प्राप्त होता है, सम्मत्तंसम्यक्त्व, मोक्खबीय-मोक्ष का बीज, ज-जो। गाथार्थ-आवलिकामात्र दलिक को उदय से वेदन कर जब उपशम-अद्धा में स्थित होता है, वहाँ जो मोक्ष का बीज है, वह औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। विशेषार्थ-प्रथम स्थिति के अन्तिम आवलिका गत दलिक को जब जीव केवल उदय से अनुभव कर अन्तरकरण में-शुद्धभूमि में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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