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________________ पंचसंग्रह : ६ अर्थात् जिन स्थानों में उन दलिकों का प्रक्षेप किया जाता है, उनके साथ भोगने योग्य किया जाना। अनेक सागरोपमप्रमाण या पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति का घात होता है, यानि उतनी स्थिति में भोगे जायें उतने दलिकों को वहाँ से हटाकर उतनी भूमि को साफ किया जाना, जिससे उतनी स्थिति के दलिक अन्य स्थिति के साथ भोगे जायें वैसे किया जाना । निषेकरचना के समय उन स्थानों में दलिक स्थापित किये गये थे, किन्तु स्थितिघात के समय मात्र अन्तर्मुहूर्त में ही ऊपर कही उतनी स्थिति में स्थापित दलिक अन्य स्थितियों में या जिनका स्थितिधात नहीं होना है, उनके साथ भोगे जा सकें, उस रूप में किया जाना । जिससे उतनी स्थिति में भोगने योग्य दलिक नहीं रहते हैं। इसी कारण स्थिति का घात हुआ, स्थिति कम हुई, यह कहा जाता है । इस प्रकार से स्थितिघात का स्वरूप जानना चाहिए। अब रसघात का स्वरूप कहते हैं। रसघात असुभाणंतमुहुत्तेणं हणइ रसकंडगं अणंतंसं । किरणे ठितिखंडाणं तंमि उ रसकंडगसहस्सा ॥१३॥ शब्दार्थ-असुभाणंतमुहुत्तेणं-अशुभ प्रकृतियों के अन्तर्मुहूर्तकाल में, हणइ-घात करता है, रसकंडगं-रसकंडक का, अणंतंसं--अनन्त' भाग रूप, किरणे-उत्कीर्ण करने में प्रवृत्त होकर, ठितिखंडाणं--एक स्थिति घात काल में, तंमि उ-उतने में, रसकंडगसहस्सा-हजारों रस कंडक । गाथार्थ-उत्कीर्ण करने में प्रवृत्त होकर स्थितिघात करते हुए अशुभ प्रकृतियों के अनन्तभाग रूप सत्तागत रसकंडक का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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