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उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२ स्थितिघात
उक्कोसेणं बहुसागराणि इयरेण पल्लसंखंसं । ठितिअग्गाओ घायइ अन्तमुहुत्तेण ठितिखंडं ॥१२॥
शब्दार्थ-उक्कोसेणं-उत्कृष्ट से, बहुसागराणि-अनेक सागरोपम प्रमाण, इयरेण-इतर-जघन्य से, पल्लसंखंसं-पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण, ठितिअग्गाओ-स्थिति के अग्रभाग से, घायइ–घात होता है, अन्तमुहत्तण-अन्तर्मुहूर्त काल में, ठितिखंडं-स्थितिखण्ड का।
गाथार्थ-स्थिति के अग्रभाग से उत्कृष्ट से अनेक सागरोपम प्रमाण और इतर-जघन्य से पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखण्ड का अन्तर्मुहूर्त काल में घात होता है।
विशेषार्थ- सत्ता में वर्तमान स्थिति के अग्रभाग से-अन्त के भाग से-उत्कृष्ट से अनेक सागरोपम प्रमाण और जघन्य से पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखण्ड का अन्तर्मुहूर्त काल में घात होता है और घात होकर उसके दलिक के नीचे जिस स्थिति का घात नहीं होता है, वहाँ प्रक्षेप किया जाता है । तत्पश्चात् पुनः पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिखण्ड का अन्तर्मुहूर्त काल में घात होता है और उसके दलिक का पहले कहे अनुसार नीचे प्रक्षेप किया जाता है । इस प्रकार से अपूर्वकरण के काल में अनेक-हजारों स्थितिघात होते हैं। जिससे अपूर्वकरण के प्रथम समय में जितनी स्थिति की सत्ता होती है, उससे उसके चरम समय में संख्यातवें भाग की सत्ता रह जाती है।
स्थितिघात अर्थात् जितनी स्थिति का घात करना है उतनी स्थिति में-काल में भोगने योग्य दलिकों को वहाँ से हटाकर भूमि को साफ करना । यानि निषेक रचना के समय जो दलिक उन स्थानों में भोगने योग्य हुए थे उन दलिकों को अन्य स्थान के दलिकों के साथ
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