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________________ १८ पंचसंग्रह : ६ ___ यद्यपि अपूर्वकरण के प्रथम समय की जघन्य विशुद्धि सर्वस्तोक है, लेकिन वह भी यथाप्रवृत्तकरण की सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि से अनन्तगुणी है। यहाँ सभी स्थान परस्पराक्रान्त हैं अतः एक का जघन्य स्थान दूसरे का उत्कृष्ट स्थान, दूसरे का उष्कृष्ट स्थान तीसरे का जघन्य स्थान इत्यादि इस क्रम से अनन्तगुणी विशुद्धि कहना चाहिये । यह क्रम चरम उत्कृष्ट स्थान तक समझना । ___अब इस करण में और जो दूसरी विशेषताएँ होती हैं-उनको स्पष्ट करते हैं अपुवकरणसमगं कुणइ अपुव्वे इमे उ चत्तारि । ठितिघायं रसघायं गुणसेढी बंधगद्धा य ॥११॥ शब्दार्थ-अपुब्वकरणसमगं-अपूर्वकरण के साथ ही, कुणइ-होती हैं, अपुवे-अपूर्व, इमे-यह, उ-ही, चत्तारि--चार, ठितिघायं-स्थितिघात, रसघायं-रसंघात, गुणसेढी-गुणश्रोणि, बंधगद्धा-बधकाद्धा-स्थितिबंध, य-और। गाथार्थ-अपूर्वकरण के साथ ही स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि और स्थितिबंध ये चार अपूर्व बातें होती हैं। विशेषार्थ-जिस समय जीव अपूर्वकरण में प्रवेश करता है, उसी समय से लेकर जिनका स्वरूप आगे कहा जायेगा और जिनको भूत काल में किसी समय किया नहीं, इसीलिये अपूर्व ऐसी ये चार बातें१ स्थितिघात, २ रसघात, ३ गुणश्रेणि और ४ बंधकाद्धा-अपूर्व स्थितिबंध-होती हैं। इन चारों की विशद व्याख्या अनुक्रम से आगे करते हैं। उनमें से स्थितिघात का स्वरूप इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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