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________________ १२ पंचसंग्रह : जीव के विशुद्धिस्थान की अपेक्षा अनन्तभाग अधिक होता है, किसी का असंख्यातभाग अधिक, किसी का संख्यातभाग अधिक, किसी का संख्यातगुण अधिक, किसी का असंख्यातगुण अधिक और किसी का अनन्तगुण अधिक होता है। इसी तरह दूसरे, तीसरे आदि अपूर्वकरण के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये। इस तरह यथाप्रवृत्त तथा अपूर्वकरण में साथ ही आरूढ़ हुए जीवों में विशुद्धि का तारतम्य है। अनिवृत्तिकरण में इस तरह का तारतम्य नहीं है। क्योंकि अनिवृत्तिकरण में तो प्रत्येक समय साथ आरूढ़ हुए समस्त जीवों के विशुद्धिस्थान-अध्यवसाय समान-सदृश तुल्य होते हैं। यानि अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में जो जीव थे, हैं और होंगे, उन सबका एक ही अध्यवसायस्थान- समान विशुद्धि होती है। दूसरे समय में जो जीव थे, हैं और होंगे, उन सबका भी एक ही अध्यवसायस्थान होता है। मात्र प्रथम समय के अध्यवसायों की विशुद्धि की अपेक्षा वह अनन्त गुणी है। इस तरह से अनिवृत्तिकरण के चरमसमयपर्यन्त जानना चाहिये । इसी कारण अनिवृत्तिकरण में ऊर्ध्वमुखी एक ही विशुद्धि होती है, परन्तु तिर्यग्मुखी विशुद्धि नहीं होती है। पूर्वोक्त कारण से यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण के अध्यवसायों की स्थापना विषमचतुरस्र और अनिवृत्तिकरण के अध्यवसायों की स्थापना मुक्तावली संस्थित बतलाई है । अब यथाप्रवृत्तकरण की विशुद्धि का तारतम्य बतलाते हैंन्यथाप्रवृत्तकरण की विशुद्धि गंतु संखेज्जसं अहापवत्तस्स हीण जा सोही । तीए पढमे समये अणन्तगुणिया उ उक्कोसा ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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