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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७ a. अब इसी बात को विशेषता के साथ स्पष्ट करते हैंपइसमयमणन्तगुणा सोही उड्ढामुही तिरिच्छा उ । ट्ठाणा जीवाणं तइए उड्ढामुही एक्का ॥७॥ शब्दार्थ-पइसमयमणन्तगुणा–प्रतिसमयअनन्तगुण, सोही-विशुद्धि, उड्ढामुही-ऊर्ध्वमुखी, तिरिच्छा-तिर्यमुखी, उ-और, छट्ठाणा---पट्स्थानपतित, जीवाणं ---जीवों की, तइए-तीसरे अनिवृत्तिकरण में, उड्ढामुही-ऊध्र्व मुखी, एक्का- एकमात्र । गाथार्थ-प्रति समय जीवों की ऊर्ध्वमुखी विशुद्धि अनन्तगुण है और तिर्यग्मुखी विशुद्धि षट्स्थानपतित है। तीसरे अनिवृत्तिकरण में एकमात्र ऊर्ध्वमुखी विशुद्धि ही होती है । विशेषार्थ- पूर्व समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय की विशुद्धि के विचार को ऊर्ध्वमुखीविशुद्धि और एक ही समय की विशुद्धि को-विशुद्धि के तारतम्य के विचार को तिर्यग्मुखीविशुद्धि कहते हैं । ऊर्ध्वमुखीविशुद्धि तो तीनों करणों में होती है और तिर्यग्मुखीविशुद्धि मात्र प्रारम्भ के दो करणों यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण में ही होती है। तीनों करणों में पूर्व-पूर्व समय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर के समय की ऊर्ध्वमुखी विशुद्धि अनन्त-अनन्त गुणी जानना चाहिये । अर्थात् प्रथम समय में जो विशुद्धि है, उसकी अपेक्षा द्वितीय समय में अनन्तगुणी विशुद्धि होती है, उसकी अपेक्षा तीसरे समय में अनन्तगुणी विशुद्धि होती है। इस तरह यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय से लेकर अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त जानना चाहिये। आदि के दो करणों की तिर्यग्मुखी विशुद्धि षट्स्थान पतित होती है । अर्थात्- यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में साथ ही आरूढ़ हुए जीवों में अनेक जीवों की अपेक्षा जो असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण विशुद्धि के स्थान हैं, उनमें का किसी जीव का विशुद्धि स्थान किसी www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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