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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८,६ एवं एक्कंतरिया हेढुवरिं जाव हीणपज्जन्ते । तत्तो उक्कोसाओ उवरुवरि होइ अणन्तगुणा ॥६॥ शब्दार्ग-गंतु-जाने पर, संखेज्जसं-संख्यातवेंभागपर्यन्त, अहापवत्तस्स—यथाप्रवृत्तकरण के, हीण-हीन, जा-जो, सोही-विशुद्धि, तीएउसके, पढमे समये-प्रथम समय में, अणन्तगुणिया-अनन्तगुणित, उ-और, उक्कोसा-उत्कृष्ट । एवं-इसी प्रकार, एकतरिया--एकान्तरित, हेढुवरि-नीचे और ऊपर, जाव--यावत्, होणपज्जन्ते-जघन्यपर्यन्त, ततो-उसके बाद, उक्कोसाओ-उत्कृष्ट, उवरुवरि-ऊपर-ऊपर, होइ—होती है, अगन्तगुणाअनन्तगुण । गाथार्थ-यथाप्रवृत्तकरण के संख्यातवें भाग पर्यन्त जाने पर उसके चरम समय में जो जघन्य विशुद्धि होती है, उसकी अपेक्षा प्रथम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है । इसी प्रकार संख्यातवें भाग ऐ नीचे और अर एकान्तरित विशुद्धि वहाँ तक जानना चाहिये यावत् जघन्य विशुद्धि का अन्तिम स्थान प्राप्त हो, उसके बाद ऊपर-ऊपर उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है। विशेषार्थ-यथाप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में तरतम भाव से विशुद्धि के जो असंख्य स्थान कहे हैं, उनमें की जो सर्वजघन्य विशुद्धि है, जिसका आगे कथन किया जायेगा, उसकी अपेक्षा अल्प होती है, उसकी अपेक्षा दूसरे समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण, इस प्रकार वहाँ तक कहना चाहिये यावत् यथाप्रवृत्तकरण का संख्यातवां भाग जाये और उस संख्यातवें भाग के अन्त में जो जघन्य विशुद्धि है, उससे प्रथम समय में उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण है। उससे संख्यातवें भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary:org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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