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उपशमनादि करणत्रय - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २,३,४
गति, त्रसदशक, सातावेदनीय, उच्चगोत्र रूप परावर्तमान इक्कीस प्रकृतियां बाँधते हैं और यदि नारक और देव हैं तो वे मनुष्यगतिप्रायोग्य मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, प्रथमसंहनन, प्रथमसंस्थान, औदारिकद्विक, पराघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति त्रसदशक, सातावेदनीय और उच्चगोत्र रूप परावर्तमान बाईस प्रकृतियों को बाँधते हैं । परन्तु इतना विशेष है कि मात्र सातवीं नरकपृथ्वी का नारक भवस्वभाव से ही पहले और दूसरे गुणस्थान में तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करने वाला होने से प्रथमसम्यक्त्व उत्पन्न करते हुए भो अनिवृत्तिकरण के चरम समय पर्यन्त तिर्यंचगतिप्रायोग्य प्रकृतियों का ही बंध करता है । यानि वह तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र कर्म का बंध करता है । इनके सिवाय शेष प्रकृतियां जो पूर्व में बताई हैं, उन्हीं को बाँधता है।
उत्तरोत्तर समय में अनन्तगुण विशुद्धि से बढ़ता हुआ शुभ अध्यवसाय वाला चारों गतियों में से किसी भी गति का जीव हो सकता है तथा अशुभप्रकृतियों के अनुभाग को अनुक्रम से अनन्तगुण हीन करता हुआ और पुण्यप्रकृतियों के रस को अनन्तगुण बढ़ाता हुआ तथा आयुकर्म के सिवाय सातों कर्मों की अन्तःकोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति की सत्ता जिसने रखी है ऐसा और आयुकर्म को नहीं बांधता, ' पूर्व - पूर्व स्थितिबंध की अपेक्षा उत्तर- उत्तर के स्थितिबंध को पल्योपम के संख्यातवें भाग कम-कम करता हुआ, यानि एक स्थितिबंध जब पूर्ण हो तब नया पल्योपम का संख्यातवें भाग न्यून बाँधता - करता, बध्यमान अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानक रस को बाँधता और उसको भी प्रतिसमय अनन्तगुण होन अर्थात् अनन्तवें भाग करता और बंधती हुईं शुभप्रकृतियों के रस को चतुःस्थानक बांधता हुआ और उसे भी प्रतिसमय अनन्तगुणा बढ़ाता हुआ तथा मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और
१ अतिविशुद्धपरिणाम वाला जीव आयु को नहीं बाँधता है । आयुकर्म का बंध मध्यम परिणामों से होता है, इसीलिये उसका निषेध किया है ।
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