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पंचसंग्रह &
बांधता हुआ, अन्तोकोडाकोडीडिओ - अन्तः कोडाकोडी स्थिति बाला, आउ'आयु को, अबंधतो -- नहीं बांधता हुआ 1
बन्धादुत्तरबंध-उत्तरोत्तर बंध को, पलिओनमसंखभागऊणूण-पत्योपम के संख्यातवें भाग न्यून करता हुआ, सागारेउवओगे - - साकारोपयोग में, बट्टन्तो - वर्तमान, कुइ - करता है, करणाई करणों को ।
गाथार्थ - सर्वोपशमना के योग्य, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय संज्ञी, शुभ लेश्या वाला, परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का बंधक, अत्यन्त शुद्ध तथा अशुभ और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को उत्तरोत्तर क्रमशः अनन्तगुणहीन और अनन्तगुण वृद्धि रूप से बाँधता हुआ, उत्तरोतर बंध को पल्योपम के संख्यातवें भाग न्यून बाँधने वाला और साकारोपयोग में वर्तमान जीव मिथ्यात्व का सर्वोपशम करने के लिये करणों को करता है ।
विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में सर्वप्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाले जीव की योग्यता आदि का उल्लेख किया है -
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मिथ्यात्व की सर्वोपशमना के योग्य - सक्षम समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त १ – उपशमलब्धि ( मिथ्यात्वमोहनीयकर्म को सर्वथा शांत करने की योग्यता वाला एवं जिसके भव्यत्वभाव का परिपाक हो चुका है) २ – उपदेशश्रवणलब्धि (उपदेश श्रवण करने की योग्यता) और ३ - प्रयोगलब्धि ( मनोयोग, वचनयोग और काययोग में से कोई भी एक योग युक्त) इन तीन लब्धियों ( शक्तियों) में युक्त संज्ञी पंचेन्द्रिय है।
वह करणकाल के पूर्व भी - यथाप्रवृत्त आदि करण प्रारम्भ करने के पहले भी अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त शुभलेश्या वाला (तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या में से कोई एक शुभ लेश्या युक्त) होता है और परावर्तमान पुण्यप्रकृतियों को बाँधता है । यह उपशमसम्यक्त्व चारों गति के जीव उत्पन्न कर सकते हैं । यदि तिर्यंच और मनुष्य प्रथमसम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं तो वे देवगतिप्रायोग्य देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग, प्रथमसंस्थान, पराघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायो
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