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________________ उपशमनादि करणत्रय-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २,३,४ पर्वतीय नदी के पत्थर के स्वयमेव गोल होने के न्याय से संसारी जीवों को यथाप्रवृत्तादि करणों से साध्य क्रियाविशेष के बिना ही वेदन-अनुभव आदि कारणों से हुए प्रशस्त परिणामों द्वारा जो उपशमना होती है, वह करणरहित-अकरणोपशमना कहलाती है। इस अकरणोपशमना का अनुयोग–व्याख्यान-वर्णन वर्तमान में उसके स्वरूप के ज्ञाता के अभाव में विच्छिन्न-नष्ट हो गया है । इसलिये करण द्वारा सम्भव प्रशस्त एवं अप्रशस्त उपशमनाओं के विचार का यहां अधिकार है। उनमें भी विशेष कथनीय होने से प्रथम सर्वोपशमना का विचार करते हैं। उसके विचार के निम्नलिखित अर्थाधिकार-विषय हैं १ प्रथमसम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा. २ देशविरतिलाभप्ररूपणा, ३ सर्वविरतिलाभ प्ररूपणा, ४ अनन्तानुबंधिविसंयोजना, ५ दशनमोहनीयक्षपणा, ६ दर्शनमोहनीयोपशमना और ७ चारित्रमोहनीयोपशमना। उक्त सात विषयों में से प्रथम सम्यक्त्व कैसे-किस क्रम से उत्पन्न होता है ? उसका विचार करते हैं। प्रथम सम्यक्त्वोत्पाद प्ररूपणा सव्ववसमणजोग्गो पज्जत्त पणिदि सण्णि सूभलेसो। परियत्तमाणसुभपगइबंधगोऽतीव सुज्झंतो ॥ २ ॥ असुभसुभे अणुभागे अणंतगुणहाणिवुड्ढिपरिणामो। अन्तोकोडाकोडीठिइओ आउं अबंधंतो ॥ ३ ॥ बन्धादुत्तरबन्ध पलिओवमसंखभागऊणूणं । सागारे उवओगे वट्टन्तो कुणइ करणाइं ॥ ४ ॥ शब्दार्थ-सव्वुवसमणजोग्गो-सर्वोपशमना के योग्य, पज्जत्त—पर्याप्त, पणिदि-पंचेन्द्रिय, सण्णि---संज्ञी, सुभलेसो--शुभ लेश्या वाला, परियत्तमाणसुभपगइबंधगो-परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का बंधक, अतीवसुज्झतो-- अत्यन्त शुद्ध । असुभसुभे-अशुभ और शुभ प्रकृतियों के, अणुभागे-अनुभाग-रस को, अणंतगुणहाणिवुढिपरिणामो—क्रमशः अनन्त गुणहीन और वृद्धि परिणाम वाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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