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एवं दर्शनमोहनीयत्रिक की उपशमना-विधि का निरूपण किया है । फिर चारित्रमोहनीय की उपशमना विधि का यथाक्रम से वर्णन किया है । साथ में अश्वकर्णकरण में करने योग्य का एवं किट्टियों के स्वरूप का और किट्टियों के रस और प्रदेश के अल्पबहुत्व का वर्णन किया है। ___चारित्रमोहनीय के उपशम होने को पूर्णता ग्यारहवें उपशान्तमोहगुणस्थान में होती है । अतएव इस गुणस्थान का विस्तार से स्वरूप वर्णन किया है और इसके बाद पतनकर अबद्घायुष्क जीव विलोम क्रम से नीचे-नीचे छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में और उसके बाद पतन कर पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है और आरोहण करते समय जिस क्रम से जिस-जिस गुणस्थान में जिन-जिन प्रकृतियों का विच्छेद हुआ था, उसी क्रम से अवरोहण करते समय यथाक्रम से उस-उस गुणस्थान के प्राप्त होने पर उन-उन प्रकृतियों के बंधादि होने का कारण सहित स्पष्टीकरण किया है।
इसके बाद स्त्री और नपुसक वेदोदय की अपेक्षा उपशमश्रेणियाँ होने का निरूपण करके सर्वोपशमना का वर्णन पूर्ण हुआ। ___ इस प्रकार से करणकृत उपशमना का निर्देश करने के बाद अकरणकृत उपशमना-देशोपशमना की व्याख्या की है कि यह प्रकृति, स्थिति आदि के भेद से चार प्रकार की है और ये चारों भेद भी मूल
और उत्तर प्रकृतियों के भेद से दो-दो प्रकार के हैं तथा देशोपशमना द्वारा शमित दलिकों में उद्वर्तना, अपवर्तना और संक्रम यह तीन करण होते हैं, शेष करण लागू नहीं होते हैं तथा अपूर्वकरण गुणस्थान तक के जीव ज्ञानावरणादि सभी आठों मूल और एकसौ अट्ठावन उत्तर प्रकृतियों की देशोपशमना के स्वामी हैं। फिर प्रकृतियों और प्रकृतिस्थानों की साद्यादि प्ररूपणा करके प्रकृति देशोपशमना का वर्णन समाप्त हुआ। इसी प्रकार से स्थिति, अनुभाग और प्रदेश देशोपशमना की प्ररूपणा करके उपशमनाकरण की विवेचना पूर्ण की।
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