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________________ ( १७ ) विस्तार से स्पष्टीकरण किया है । यही चार पदार्थ अनिवृत्तिकरण में भी होते हैं और अनिवृत्तिकरण काल का संख्यातवां भाग शेष रहने पर स्थिति का अन्तरकरण होता है । अतरकरण होने पर नीचे और ऊपर की स्थिति-इस प्रकार से स्थिति के दो भाग हो जाते हैं । नीचे की स्थिति को प्रथमस्थिति और ऊपर की स्थिति को द्वितीयस्थिति कहते हैं । बीच की भूमिका शुद्ध होती है। जिसमें कोई भी दलिक भोगने योग्य नहीं रहता है। इसी समय प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । जिसका काल अतर्मुहूर्त है। उपशांताद्धा के अंत में अध्यवसायों के अनुसार सम्यक्त्वपुज का उदय होने पर क्षायोपमिक सम्यवत्व की, मिश्रपुंज का उदय होने पर मिश्रगुणस्थान की और मिथ्यात्वपुज का उदय होने पर मिथ्यात्वगुणस्थान की प्राप्ति होती है तथा उपशमसम्यक्त्व काल में एक समय यावत् छह आवलिका काल शेष रहने पर अशुभ परिणाम होने से कोई सासादनभाव को भी प्राप्त होता है और उसके बाद वहाँ से गिरकर अवश्य ही मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार से प्रथम सम्यकत्वोत्पाद प्ररूपणा का सांगोपांग विवेचन करने के बाद चारित्रमोहनीय-उपशमना प्ररूपणा का कथन प्रारंभ किया है। सर्वप्रथम देशविरति, सर्वविरति लाभ और स्वामित्व को वतलाने के बाद अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरति का स्वरूप बतलाया है। अनन्तर क्रमप्राप्त अनन्तानुबंधि-विसंयोजना की तथा जो आचार्य अनन्तानुबंधि की उपशमना मानते हैं, उनके मतानुसार उपशमना प्ररूपणा की है। तत्पश्चात् दर्शनमोहक्षपण का विस्तार से वर्णन किया है और अंत में बतलाया है कि क्षायिक सम्यक्त्वी कितने भव में मोक्ष प्राप्त करता है-इसके बाद चरित्रमोहनीय की उपशमना का स्वामित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001906
Book TitlePanchsangraha Part 09
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages224
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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